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________________ www.vitragvani.com 114] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 आस्रवादि तत्त्वों को एक माना है; इसलिए उसने नव तत्त्वों को स्वतन्त्र नहीं जाना है; अतः उसे नव तत्त्व की व्यवहारश्रद्धा भी नहीं हुई है। ___नव तत्त्वों में पुण्य, पाप और आस्रव - ये तीन कारण हैं और बन्ध, उनका कार्य है। कुदेव और कुगुरु - ये बन्धतत्त्व के नायक हैं। जो पुण्य से धर्म मनवाता है अथवा आत्मा, जड़ का कुछ कर सकता है - ऐसा मनवाता है, वह कुगुरु हैं। ऐसे कुगुरुओं को पुण्य, पाप, आस्रव और बन्धतत्त्व के रूप में स्वीकार करके, उनका आदर छोड़नेवाले ने ही बन्धतत्त्व को माना कहा जाता है। कुगुरु, उन पुण्य, पाप, आस्रव और बन्धतत्त्व के कर्ता हैं; इसलिए उन्हें उन पुण्य, पाप, आस्रव और बन्धतत्त्व में जानना चाहिए। जो जीव, विकार में धर्म मनवानेवाले कुगुरुओं को सत्य मानता है, उनका आदर करता है, उसने आस्रव आदि तत्त्वों को संवर-निर्जरारूप मान लिया है। वस्तुतः उसने नव तत्त्वों को नहीं जाना है। सम्यग्दर्शन तो एक चैतन्यतत्त्व के अवलम्बन से ही होता है। शुद्ध चैतन्यद्रव्य की प्रतीति करके उसके आश्रय से, एकाग्रता से ही संवर-निर्जरा होते हैं। पुण्य, उदयभाव है, उस उदयभाव से संवर-निर्जरा नहीं होने पर भी जो पुण्य को क्षयोपशमभाव मानता है और उसे संवर-निर्जरा का कारण मानता है तो इस मान्यता में विपरीतश्रद्धा है और विपरीतश्रद्धा अनन्त संसार का कारण है। प्रश्न - थोड़ी-सी भूल की इतनी बड़ी सजा? उत्तर - चैतन्यस्वभाव को विकार से लाभ मानना - यह छोटी-सी भूल नहीं है, अपितु महाभयङ्कर अपराध है। उसमें Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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