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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [113 पहले, राग की मन्दता होकर ज्ञान के क्षयोपशम में नव तत्त्व जैसे हैं, वैसा जानना चाहिए। उन्हें जाने बिना भेद का निषेध करके अभेद का अनुभव प्रगट नहीं हो सकता है। नव तत्त्वों में जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व, वे त्रिकाल हैं, वे मूलद्रव्य हैं और शेष सात तत्त्व, क्षणिक अवस्थारूप हैं। पुण्य और पाप, उस क्षणिक अवस्था में होते हैं, वे विकारी अंश हैं । जीव में होनेवाले पुण्य-पाप, अस्रव तथा बन्ध – ये चारों तत्त्व, जीव की अवस्था का स्वतन्त्र विकार हैं । वह, त्रिकाली जीव के आश्रय से नहीं है तथा अजीव के कारण भी नहीं है। यदि त्रिकाली जीव के आश्रय से विकार होता हो, तब तो जीवतत्त्व और पुण्यादि तत्त्व भिन्न नहीं रहते और यदि अजीव के कारण विकार होता हो तो अजीवतत्त्व और पुण्यादिक तत्त्व भिन्न नहीं रहते; इस प्रकार नव तत्त्व भिन्न-भिन्न निश्चित नहीं होते; इसलिए नव तत्त्वों को ज्यों का त्यों भिन्न-भिन्न पहचानना चाहिए। भगवान आत्मा, अनन्त चेतनशक्ति का पिण्ड ध्रुव है; शरीर आदि अजीव से भिन्न है – ऐसे रागसहित विचार से निर्णय करने को जीवतत्त्व का व्यवहार निर्णय कहा जाता है। इस जगत् में अकेला जीवतत्त्व ही नहीं, परन्तु जीव के अतिरिक्त दूसरे अजीवतत्त्व भी हैं। जीव में उस अजीव का अभाव है परन्तु अजीवरूप से तो वे अजीवतत्त्व भूतार्थ हैं तथा चैतन्यतत्त्व का लक्ष्य छूटकर अजीव के लक्ष्य से क्षणिक अवस्था में पुण्य-पाप, आस्रव और बन्धतत्त्व होता है। जो यह मानता है कि अजीवकर्म के कारण जीव को विकार होता है तो वस्तुतः उसने अजीव और Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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