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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
आत्मार्थी का पहला कर्तव्य - (4)
नव तत्त्व का ज्ञान, सम्यग्दर्शन का व्यवहार
जिसे सम्यक्त्व और आत्महित की वास्तविक जिज्ञासा जागृत हुई है, ऐसे जीव को संसार सम्बन्धी विषय-कषायों का तीव्र रस तो पहले ही छूट गया होता है, तदुपरान्त सम्यग्दर्शन के लिये प्रयत्न में अन्तर के व्यवहाररूप से उसे सर्वज्ञ द्वारा कथित नव तत्त्व का विचार होता है।
जिसे आत्मा की शान्ति और हितरूप कर्तव्य करना हो, उसे क्या करना? - यह बात चल रही है। प्रथम तो जीव-अजीव इत्यादि नव तत्त्वों को ज्यों का त्यों मानना चाहिए। नव तत्त्वों को माने बिना, नव के विकल्प का अभाव होकर एकरूप वस्तुस्वभाव की दृष्टि नहीं होती और वस्तुस्वभाव की दृष्टि हुए बिना शान्ति अथवा हित नहीं होता। ___नव तत्त्व हैं, वे पर्यायदृष्टि से हैं। नव तत्त्वों में अनेकता है, उस अनेकता के आश्रय से एक स्वभाव की प्रतीति नहीं होती तथा पर्यायदृष्टि में अनेकता है; इस बात को जाने बिना भी एकरूप स्वभाव की वस्तुदृष्टि नहीं होती। नव तत्त्व के विकल्प से एक अभेद आत्मस्वभाव का श्रद्धा-ज्ञान नहीं होता, परन्तु एक अभेद आत्मस्वभाव के सन्मुख ढलकर उसका श्रद्धा-ज्ञान करने से उसमें नव तत्त्वों का रागरहित सम्यग्ज्ञान आ जाता है। सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च को भले ही नव तत्त्व की भाषा नहीं आती हो, परन्तु उसके ज्ञान में से नव तत्त्व सम्बन्धी विपरीतता दूर हो गयी है।
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