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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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परन्तु ऐसी निर्विकल्पदशा के लिए आत्मसन्मुख होने से पूर्व नव तत्त्व के विचार आये बिना नहीं रहते हैं । जो नव तत्त्व के क्रम - विचार में भी जो नहीं आया है, उसे उस क्रमरूप विचारों को छोड़कर अक्रम आत्मस्वभाव की एकता की अनुभूति नहीं होती है।
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प्रथम, नव तत्त्व की श्रद्धा करके, उन नव के भेदों का विचार छोड़कर अभेद चेतनद्रव्य की प्रतीति करने से सम्यग्दर्शनरूपी संवर धर्म प्रगट होता है। संवरतत्त्व की श्रद्धा में सच्चे गुरु कैसे होते हैं ? – उनकी श्रद्धा भी आ जाती है । संवरतत्त्व को धारण करनेवाले ही सच्चे गुरु हैं । जो पुण्य को संवरतत्त्व मानते हैं अथवा देह की क्रिया को संवरतत्त्व मानते हैं, वे सच्चे गुरु नहीं हैं। इस प्रकार संवर इत्यादि तत्त्व को और सच्चे गुरु को पहचाने तब तो व्यवहार श्रद्धा होती है, वह पुण्यभाव है और उससे विरुद्ध कुदेव - कुगुरु को माने अथवा पुण्य को संवर माने तो उसमें मिथ्यात्व के पोषण का पापभाव है, उसे धर्म नहीं होता ।
देखो, रोटी छोड़ दी, इसलिए मुझे उपवास अथवा संवर हुआ है - ऐसा माननेवाले को संवरतत्त्व के स्वरूप का पता नहीं है और जिसकी एक तत्त्व में भूल होती है, उसकी नव तत्त्वों में भूल होती है । सिद्धपरमात्मा के समान अपने आत्मस्वभाव का श्रद्धा - ज्ञान करके उसमें रागरहित स्थिरता, वह संवर- धर्म है - ऐसे संवर इत्यादि नव तत्त्व की विकल्परहित श्रद्धा, वह व्यवहार श्रद्धा है और नव तत्त्व के विकल्परहित होकर एक भूतार्थ स्वभावरूप आत्मा की प्रतीति और अनुभव करना, वह वास्तव में सम्यग्दर्शन है । वही प्रथम धर्म है। निश्चयसम्यग्दर्शन का यही मार्ग है । •
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