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________________ www.vitragvani.com 108] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 हित के लिए कुछ अपूर्व नहीं किया है। बाहर में कुदेवादि की विपरीतमान्यता छोड़कर, यह सर्वज्ञदेव द्वारा कथित नव तत्त्वों को भलीभाँति जानें तो भी अभी धर्म की व्यवहार रीति में आया है, अभी परमार्थ धर्म की रीति तो इससे भी अलग है। ___छठवाँ, संवरतत्त्व है। संवर, आत्मा की निर्मलपर्याय है। शरीर को संकुचित करके बैठ जाना, वह कोई संवर नहीं है। चैतन्य में एकाग्रता से सम्यग्दर्शन होता है, वह पहला संवर है। कोई यह मानता है कि पुण्य, क्षयोपशमभाव है और उससे संवर होता है तो यह मान्यता मिथ्या है। कर्म के उदय में जुड़ने से शुभवृत्ति का उत्थान होता है, वह पुण्य है; वह पुण्य, क्षयोपशमभाव नहीं है, अपितु उदयभाव है। पुण्य है, वह आस्रव है, वृत्ति का उत्थान है; यदि उसे उदयभाव नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे? क्या अकेले पाप को ही उदयभाव कहना है ? पुण्य तथा पाप यह दोनों उदयभाव धर्म के कारण नहीं हैं। संवर तो पुण्य-पाप से रहित निर्मलभाव है, वह धर्म है। चैतन्यस्वरूप आत्मा में एकाग्रता से ही संवर होता है - ऐसा संवरभाव, आत्मा में प्रगट होने से पूर्व उसकी प्रतीति करना, वह व्यवहारश्रद्धा है। जिसे ऐसा संवरभाव प्रगट हुआ हो, वही सच्चे गुरु होते हैं; जिन्हें ऐसा संवरभाव प्रगट नहीं हुआ हो, वह सच्चा गुरु नहीं कहलाता है। इसलिए संवरतत्त्व की पहचान में सच्चे गुरु की प्रतीति भी साथ ही आ जाती है। जिनमें संवरपना प्रगट नहीं हुआ हो - ऐसे अज्ञानियों का गुरुरूप से आदर करनेवाले जीव को संवरतत्त्व की श्रद्धा नहीं है और गुरु की पहचान भी नहीं है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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