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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [107 जिस प्रकार किसी के पास से उधार लिया हो, किन्तु अभी उसका उधार चुका न पाया हो, उससे पहले तो वह उधार पूरा-पूरा चुकाना है - यह स्वीकार करे तो वह व्यवहार में साहूकार हुआ है और जब सारा उधार चुका दे, तब वास्तविक साहूकार हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार चैतन्यद्रव्य की अखण्ड निधि सिद्ध समान है, अनन्त गुणों का भण्डार है, उसमें एकाग्र होकर, उसका अनुभव करनेरूप उधार चुकाने से पहले उसकी व्यवहारश्रद्धा करना, वह व्यवहार में साहूकार है अर्थात् व्यवहारश्रद्धा है और फिर अखण्ड चैतन्यद्रव्य की प्रतीति करके, उसका अनुभव करना, वह परमार्थ से साहूकारी है अर्थात् परमार्थश्रद्धा है। ऐसे परिपूर्ण आत्मस्वभाव की श्रद्धा करने में क्रम नहीं होता। पूर्ण की श्रद्धा के पश्चात् चारित्र में क्रम पड़ता है। जिसने पुण्य और पाप इन दोनों तत्त्वों को विकाररूप से समान नहीं जाना, किन्तु पुण्य ठीक है और पाप ठीक नहीं है - ऐसा भेद माना, उसने आस्त्रवतत्त्व को नहीं जाना। जैसे, तालाब में नदी का पानी बाहर से आता है; इसी प्रकार आत्मा में आस्रवभाव कहीं बाहर की क्रिया से नहीं आता, परन्तु पर्यायदृष्टि से जीव की अवस्था में आस्रवभाव, उस क्षण नये उत्पन्न हुए हैं। आस्रव, त्रिकाल जीवद्रव्य से नहीं हुआ तथा अजीवद्रव्य से भी नहीं हुआ है। अहो! जब बहुत से लोगों को नव तत्त्व का भी भले प्रकार से पता नहीं है, तब उन्हें अन्तरस्वभाव की दृष्टि कैसे होगी? वे जीव तो आत्मा के भान बिना जैसे जन्मे थे, वैसे ही कौवे और कुत्ते की तरह अवतार पूरा करके, मरकर चले जाते हैं। उन्होंने जीवन में Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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