________________
www.vitragvani.com
106]
[सम्यग्दर्शन : भाग-3
को भिन्न समझ। अभेद चैतन्यस्वभाव की निर्विकल्प श्रद्धा करने के लिए प्रथम रागमिश्रित विचार से जीव-अजीव को भिन्न जानना, वह व्यवहारश्रद्धा है। ___जीव और अजीव - ये दो तत्त्व मूलद्रव्य हैं, वे त्रिकाली हैं
और शेष सातों तत्त्व, क्षणिक अवस्थारूप हैं। अवस्था में जो क्षणिक पुण्य-पाप होते हैं, वे जीव के त्रिकाली स्वभाव में से नहीं आये हैं तथा जड़ की क्रिया से भी नहीं हुए हैं। जीवद्रव्य में से पुण्य आया - ऐसा मानने से जीव और पुण्य तत्त्व अलग-अलग नहीं रहते और जड़ की क्रिया से पुण्य मानने पर अजीव और पुण्यतत्त्व अलग-अलग नहीं रहते। पुण्य तो क्षणिक अवस्था से होता है
और जीवतत्त्व त्रिकाल है; इस प्रकार नव तत्त्वों को जाने बिना व्यवहार श्रद्धा भी सच्ची नहीं होती।
त्रिकाली जीवद्रव्य के लक्ष्य से पुण्य-पाप उत्पन्न नहीं होते हैं और परवस्तु के कारण भी पुण्य-पाप नहीं होते, अपितु जीव की एक समयमात्र की अवस्था में अरूपी शुभाशुभ विकारीपरिणाम होते हैं, वह पुण्य-पाप है। ___ अब, पाँचवाँ आस्रवतत्त्व है। पहले पुण्य-पापतत्त्व की अलग पहचान करायी थी और फिर आस्रवतत्त्व का वर्णन करते हुए, पुण्य-पाप दोनों को आस्रव में डाल दिया है। इसलिए पुण्य ठीक है और पाप ठीक नहीं है, इस प्रकार जो पुण्य-पाप में अन्तर मानता है, उसे आस्रवतत्त्व की श्रद्धा नहीं है। पुण्य और पाप दोनों विकार हैं, आस्रव हैं। पुण्य-पाप से रहित सिद्धसमान सदा पद मेरा - ऐसा विचारनेवाले ने व्यवहार से नव तत्त्व को स्वीकार किया है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.