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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [105 सबसे भिन्न आत्मा की श्रद्धा नहीं हो सकती, परन्तु मरण के काल में कुछ करूँगा।' – वस्तुतः तो ऐसा कहनेवाले को तत्त्व की रुचि ही नहीं है, आत्मा को समझने की दरकार ही नहीं है। अरे भाई! अभी भी शरीर, पैसा इत्यादि समस्त पदार्थों से आत्मा भिन्न ही है, आत्मा पर का कुछ नहीं कर सकता, फिर भी मैं कर्ता हूँ - ऐसा मानता है, वह अज्ञानी है। यदि पर से भिन्न आत्मा की बात अभी नहीं समझता और समझने की रुचि भी नहीं करता तो मरण के काल में किस प्रकार करेगा? ___मैं जीव हूँ और शरीरादि पदार्थ मुझसे भिन्न अजीव हैं; आत्मा उन शरीरादिक के कार्य नहीं करता, इतनी-सी बात भी जिसे नहीं अँचती, उसे जीव-अजीवतत्त्व के पृथक्पने का भान भी नहीं है। प्रश्न - आत्मा, व्यवहार से तो पैसा इत्यादि प्राप्त कर सकता है न? उत्तर - ऐसा नहीं है। पैसा जड़ है, उस जड़ के आने-जाने की अवस्था, उसके कारण होती है; आत्मा, व्यवहार से भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मा उन्हें प्राप्त कर सकता है - ऐसा मानना तो व्यवहारश्रद्धा भी नहीं है। इसने पैसा प्राप्त किया, इसने ऐसा किया और यह प्राप्त किया' - ऐसा बोला जाता है परन्तु वह कहीं वस्तुस्वरूप नहीं है। नव तत्त्व का विचार करे तो वस्तुस्वरूप ख्याल में आता है और बहुत-सी भ्रमणाएँ मिट जाती हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमात्मा, दिव्यध्वनि में फरमाते हैं कि हे जीव! तू धीरजवान हो, जरा शान्त हो; तुझे आत्मा का कल्याण करना हो, धर्म करना हो तो हम कहते हैं, तदनुसार जीव-अजीव Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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