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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
माने, उसे तो जीवतत्त्व की व्यवहारश्रद्धा भी नहीं होती। जो विकल्प से भी मन द्वारा भी परिपूर्ण जीवतत्त्व को नहीं जानता, उसे विकल्प तोड़कर उसके अनुभवरूप परमार्थश्रद्धा तो कैसे होगी? नव तत्त्व की व्यवहारश्रद्धा, वह भी पुण्य है, धर्म नहीं है तो फिर बाहर की क्रिया में तो धर्म होगा ही कैसे? अरे! अन्दर के अलौकिक स्वानुभव का मार्ग लक्ष्य में तो ले!
जिस प्रकार मक्खी कफ को खाने जाती है तो उसकी चिकनाहट में चिपट जाती है; इसी प्रकार अज्ञानी जीव, अनादि से
चैतन्य को भूलकर इन्द्रिय-विषयों की रुचि करके उसमें ही तल्लीन हो जाता है परन्तु किञ्चित् निवृत्ति लेकर, 'अरे ! मैं कौन हूँ, यह संसार परिभ्रमण कैसे मिटे?' इस प्रकार जीवादि तत्त्वों का विचार नहीं करता। अभी नव तत्त्व के विचार में भी राग के प्रकार पड़ते हैं क्योंकि नव तत्त्वों का विकल्प एक साथ नहीं होता, अपितु क्रम -क्रम से होता है, इसलिए उसमें रागमिश्रित विचार है। पहले रागमिश्रित विचार से नव तत्त्वों का निर्णय करना, वह व्यवहारश्रद्धा है, वह भी अभी वास्तव में धर्म नहीं है किन्तु धर्म का आँगन है
और नव तत्त्वों के विकल्प से रहित होकर एक अभेद आत्मा को लक्ष्य में लेना, वह निश्चयश्रद्धा है, वही प्रथम धर्म है।
जिस प्रकार बहियों का लेखा देखे तो पूँजी का पता पड़ता है; इसी प्रकार सत्समागम से शास्त्र का अभ्यास, श्रवण-मनन करे तो जीव क्या-अजीव क्या? - इसका पता पड़ता है।
कोई कहता है कि 'हमारे जीवित रहते तो घरबार, व्यापार -धन्धा इत्यादि का बहुत काम होता है; इसलिए जीते-जी इन
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