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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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___ अहो! एक समय का संवर, वह मुक्ति प्रदाता है। ऐसे संवर के बदले जो जड़ की क्रिया में और पुण्य में संवर मनवाते हैं, वे सब कुदेव-कुगुरु हैं। वे कुगुरु, सच्चे धर्म के लूटनेवाले ठग हैं, उन्हें जो गुरुरूप में मानता है, वह जीव, धर्म के लूटेरों का पोषण करता है; अतः उसे धर्म नहीं हो सकता। जो पर से अथवा पुण्य से संवर होना नहीं मनवाते, अपितु आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र से संवर मनवाते हैं और ऐसा संवर जिनकी आत्मा में प्रगट हुआ है - ऐसे गुरु को ही गुरुरूप से मानें, तब तो गुरु की अथवा संवरतत्त्व की श्रद्धा हुई कहलाती है। अभी यह सब तो व्यवहारश्रद्धा में आ जाता है।
अहो! जो सम्यक्त्व के पिपासु होते हैं, वे अन्तर में विचार करके इस जाति का ख्याल तो ज्ञान में करो! यह आत्मा की अन्दर की क्रिया है, इसके अतिरिक्त बाहर की क्रिया आत्मा नहीं कर सकता। पहले अन्तर में परमार्थस्वभाव के सन्मुख होकर उसकी श्रद्धा करना, वह पहला संवर है और फिर चारित्रदशा प्रगट होने पर विशेष संवर होता है।
आत्मा पर का कुछ कर सकता है, पुण्य से संवर/धर्म होता है - ऐसा माननेवाले की तो व्यवहारश्रद्धा भी सच्ची नहीं है। जो ऐसे जीवों को गुरुरूप से मानकर आदर करता है, उस जीव को आत्मा के हित की कुछ भी दरकार नहीं है। मिथ्यात्व का सेवन तो सबसे बड़ा पाप है; शुद्ध चैतन्य की श्रद्धा करके उसमें स्थिर होना, वह संवर है। जिन्होंने स्वयं ऐसा संवर प्रगट किया हो और ऐसा ही संवर का स्वरूप बतलाते हों, वे ही सच्चे गुरु हैं । संवरभाव प्रगट
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