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________________ xxviii और ऐसी ही मुद्रा इस वंदन प्रसंग पर की जाती है। उसमें चरवलो एवं मुहपत्ति हाथ में रखकर, दोनो हाथ जोड़कर अधोभाग के अलावा खुले शरीरसे मस्तक को झूकाकर खडा रहना होता है। १२ कृमिकर्म द्वादशावर्त वंदन करते समय 'अ हो-कार्य-काय ' रुप तीन 'जत्ता भेज व णि, जं च भे' रुप तीन इस तरह छह आवर्तके वंदनमें गरु-चरणों पर हाथके तले लगाते हुए, उसे अपने ललाट पर स्पर्श किया जाये, तब आवर्त्त होता है। अर्थात् दो बार के बारह आवर्त । चित्र नं - ३,४,५ ४ शिरोनमन 'कायसंफासं' कहेते हुए स्व मस्तकको गुरु चरणों में झकना एक शिरोनमन एवं 'खामेमि खमासमणो ! देवसियं वईक्कमं' बोलते वक्त फिर स्व मस्तक झुकाना वह दूसरा शिरोनमन | दोनो बार मिलकर चार चार शिरोनमन होता है। चित्र नं -६ ३ गुप्तिः मन, वचन एवं कायाको अन्य व्यापारसे मुक्त होकर, अच्छी तरह छिपाए रखने समान तीन गुप्तिको पहचानना । २‘प्रवेश''अणुजाणह मे मिउग्गहं बोलकर पहली बार वंदन करते गुरुकी अनुज्ञा लेकर अवग्रहमें प्रवेश करना, यह पहला प्रवेश करना यह दूसरा प्रवेश | १ ‘निष्क्रमण' : अवग्रहमें से 'आवस्सिआए' पद बोलकर बहार नीकलना वह निष्क्रमण, दूसरी बारकी वंदनामें यह पद बोला नहीं जाता है, इसलिए निष्क्रमण एक बार ही होता है। "गुरुवंदन' में “ईच्छा (आवेदन): अनुज्ञापन, अव्याबाध (पृच्छा), यात्रा(पृच्छा), यापना (पृच्छा) एवं अपराध-क्षमापना" यह छ स्थान होते है।
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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