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१.इच्छा-निवेदन-स्थान
इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए - हे क्षमाश्रमण ! आपको मैं निर्विकार एवं निष्पाप काया के द्वारा वंदन करना चाहता हुँ।
इन पदोसे वंदन करने की इच्छाका निवेदन होता है इसलिए इसे ईच्छानिवेदन स्थान कहा जाता है।
शिष्यके द्वारा इच्छा का निवेदन करने के पश्चात गुरु अगर काममें व्यस्त हो तो 'त्रिविधेन' ऐसे शब्द कहते है एवं अनुमति देनी हो तो 'छंदेणं'- 'आपकी ईच्छा हो उसके अनुसार करो' ऐसा कहते है। २.अनुज्ञापन-स्थान
'अणुजाणह में मिउग्गहं' - मुझे अपने पास आनेकी अनुमति दीजिए । मित अवग्रहमें दाखिल होना अर्थात् गुरुकी मर्यादित भूमिमें जाना। ___ गुरु यहाँ प्रत्युत्तर देते है कि - 'अणुजाणामि' - अनुमति
देता हुं। निसीहि - सब अशुभ व्यवहारोको त्याग करता हुँ। ___ वंदनक्रिया भाव-पूर्वक करनी हो तो मनको संपूर्ण रुप से वापस खींच लिया जाये । यहाँ 'निसीही' शब्दसे ऐसी स्थितिको सूचित किया है।
अहो काय काय-संफासं खमणिज्जो भे ! किलामो - हे भगवान ! आपके चरणो को मेरी कायाका स्पर्श होनेसे किलामण-मुश्केली होती है, वह सहन कर लेना। ___ 'निसीहि बोलने के पश्चात तीन पीछेके, तीन आगे के एवं तीन भूमि के इस तरह नौ संडासा (संदंश - ऊरु-संधि, जांघ एवं