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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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मूल तक डोलने से गिरे हुए पराग की अधिक सुगंध में आसक्त, चपल (चंचल) भ्रमर समूह के झंकार शब्द से युक्त, निर्मल पंखुड़ी वाले कमल पर वास करने वाली, कांति पूंज से रमणीय, सुंदर कमलसे युक्त हाथवाली, देदीप्यमान हार से सुशोभित और (तीर्थंकरों की) वाणीको समुहरूप देनेवाली हे ! श्रुत देवी ! मुझे (श्रुत ज्ञान के) सार रूप मोक्ष का श्रेष्ठ वरदान दो | (४)
प्रतिक्रमणके पूर्णाहुतिके हर्षोल्लास दर्शाने के लिए यह स्तुति स्त्रीओं को बोलनी है। प्रथम तीन गाथाएं, देवसिअं
और राईअ प्रतिक्रमणमें श्राविकाए बोलती है | चतुर्विध संघ पाक्षिक, चार्तुमासिक और संवत्सरी प्रतिक्रमणमें सज्झायके बदले उवस्सग्गहरं सूत्र पूर्वक यह स्तुतिका उपयोग करते है। यह स्तुतिकी रचना श्री हरिभद्रसूरिने की है । उन्होंने १४४० ग्रंथोकी रचना की ।जब चार ग्रंथ बाकी रहे तब उन्होंने 'संसारदावानल' की रचना की । परंतु चौथी गाथा का पहला चरण उनके हृदयके अभिप्रायके अनुसार संघने पूरा किया । तबसे झंकाराराव'शब्दोसे बाकीका चरण समग्र संघ उंचे स्वरसे बोलते है |
पंचपरमेष्ठिको नमस्कार
नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं,
_ नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं,
एसो पंच नमुक्कारो,
सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं || (१) मैं नमस्कार करता हूं अरिहंतो को, मैं नमस्कार करता हूं सिद्धों को, मैं नमस्कार करता हूं आचार्यों को, मैं नमस्कार करता हूं उपाध्यायों को, मैं नमस्कार करता हूं लोक में (रहे) सर्व साधुओं को, यह पांचो को किया नमस्कार, समस्त (रागादि) पापों (या पापकर्मो) का अत्यन्त नाशक है, और सर्व मंगलों में श्रेष्ठ मंगल है |(१)