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________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित १७५ __(सम्यग् दर्शनके अतिचार) आगमणे, निग्गमणे, ठाणे, चंकमणे, अणाभोगे; अभिओगे अ निओगे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (५) उपयोगशून्यता से, दबाव होने से अथवा नौकरी आदि का कारण, आने में, जाने में, एक स्थान पर खड़े रहने में व बारंबार चलने में अथवा इधर-उधर फिरने में वर्ष संबंधी जो (अशुभकर्म) बंधे हो उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । (अभियोग-दबाव, राजा, लोकसमूह, बलवान, देवता, मातापितादि, वडिलजन तथा अकाल या अरण्यमें फँसना वगैरह आपत्तियों से आया हुआ दबाव, नियोग-फर्ज) (५) (सम्यक्त्व के अतिचार) संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु सम्मत्तस्स ईआरे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (६) छक्काय समारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा अत्तहा य परहा, उभयवा चेव तं निंदे । (७) १) मोक्षमार्ग में शंका, २) अन्यमत (धर्म) की इच्छा, क्रिया के फलमें संदेह या धर्मियों के प्रति जुगुप्सा (धृणा, तिरस्कार), ३) मोक्षमार्गमें बाधक अन्य दार्शनिकों की प्रशंसा व ४) उनका परिचय-सम्यक्त्व विषयक अतिचारों में वर्ष संबंधी लगे हुए अशुभ कर्मों की मैं शुद्धि करता हुँ । (६) छकाय के जीवों की हिंसायुक्त प्रवृत्ति करते हुए तथा अपने लिए, दूसरों के लिए और दोनो (अपने और दुसरोंके) के लिए (भोजन)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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