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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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__(सम्यग् दर्शनके अतिचार) आगमणे, निग्गमणे, ठाणे, चंकमणे, अणाभोगे;
अभिओगे अ निओगे,
पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (५) उपयोगशून्यता से, दबाव होने से अथवा नौकरी आदि का कारण, आने में, जाने में, एक स्थान पर खड़े रहने में व बारंबार चलने में अथवा इधर-उधर फिरने में वर्ष संबंधी जो (अशुभकर्म) बंधे हो उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । (अभियोग-दबाव, राजा, लोकसमूह, बलवान, देवता, मातापितादि, वडिलजन तथा अकाल या अरण्यमें फँसना वगैरह आपत्तियों से आया हुआ दबाव, नियोग-फर्ज) (५)
(सम्यक्त्व के अतिचार) संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु सम्मत्तस्स ईआरे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (६) छक्काय समारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा
अत्तहा य परहा, उभयवा चेव तं निंदे । (७) १) मोक्षमार्ग में शंका, २) अन्यमत (धर्म) की इच्छा, क्रिया के फलमें संदेह या धर्मियों के प्रति जुगुप्सा (धृणा, तिरस्कार), ३) मोक्षमार्गमें बाधक अन्य दार्शनिकों की प्रशंसा व ४) उनका परिचय-सम्यक्त्व विषयक अतिचारों में वर्ष संबंधी लगे हुए अशुभ कर्मों की मैं शुद्धि करता हुँ । (६) छकाय के जीवों की हिंसायुक्त प्रवृत्ति करते हुए तथा अपने लिए, दूसरों के लिए और दोनो (अपने और दुसरोंके) के लिए (भोजन)