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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
रांधते हुए, रंधाते हुए (या अनुमोदन में) जो कर्म बंधे हों, उनकी मैं निंदा करता हुँ | (७)
(सामान्यसे बारह व्रतके अतिचार) पंचण्ह मणुव्वयाणं, गुण व्वयाणं च तिण्हमइयारे; सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (८) पांच अणुव्रत (स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि) तीन गुणव्रत (दिक्परिमाण व्रतादि), चार शिक्षाव्रतों (सामायिकादि) (तप संलेखणा व सम्यक्त्वादि के) विषय में वर्ष संबंधी छोटे बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । (८)
(प्राणातिपात व्रतके अतिचार) पढमे अणुव्वयम्मि, थूलग पाणाइ वाय विरईओ आयरिअ मप्पसत्थे, इत्थ पमाय प्पसंगेणं। (९)
वह बंध छविच्छेए, अइभारे भत्त-पाण-वुच्छेए पढम वयस्सइयारे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (१०) प्रथम अणुव्रत-स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के विषय में पांच अतिचार-प्रमाद से परवश होकर या रागादि अप्रशस्त (अशुभ) भावसे-(जीव को) १) मार मारना २) रस्सी आदि के बंधन बांधना ३) अंगछेदन ४) ज्यादा भार रखना और ५) भूखा-प्यासा रखना, प्रथम व्रत के इन पांच अतिचारों में वर्षभर में जो कर्म बंधे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ || (९-१०)
__(मृषावादके अतिचार) बीए अणुव्वयम्मि, परिथूलग अलिय वयण विरइओ
आयरिअ मप्पसत्थे, इत्थ पमाय प्पसंगेणं| (११)