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________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित १७३ मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता हूँ | काया द्वारा, वाणी द्वारा, मन द्वारा, उत्सूत्र कहने से, उन्मार्ग में चलने से, अकल्पनीय वर्तन करने से, अकरणीय कार्य करने से, दुष्ट ध्यान करने से, दुष्ट चिंतन करने से, अनाचार करने से, अनिच्छित वर्तन से, श्रावक के योग्य व्यवहार से विरुद्ध आचरण करने से, ज्ञान संबंधी, दर्शन संबंधी, देश-विरति रुप चारित्र संबंधी, श्रुत ज्ञान संबंधी, सामायिक संबंधी, तीन गुप्तियों संबंधी, चार कषाय संबंधी और पांच अणु व्रत में, तीन गुण व्रत में, चार शिक्षाव्रत मेंबारह प्रकार के श्रावकधर्ममें खंडना हुई हो, जो विराधना हुई हो, मेरे द्वारा संवत्सरी (वार्षिक) में जो अतिचार हुए हों, मेरे वे सर्व दुष्कृत्य मिथ्या हों । इस सुत्रका दूसरा नाम 'अतिचार आलोचना सूत्र' भी है। इसलिए जिस कारणों से या कषायोके उदय से हुए सर्व अतिचारों के लिए साधक अत्यंत दुःखी होता है और ऐसा कर्म दुबारा न हो ऐसे भावके साथ मिच्छा मि दुक्कडं' कहता है। इस सूत्रमें पंचाचारके अतिचारोंका आलोचन तथा प्रतिक्रमणमें 'मिच्छा मि दुक्कड' करके विशेष शुद्धिरुप सामायिक के लिए कायोत्सर्ग करना है। आचार तथा व्रतोमें लगे हुए अतिचारकी निंदा - गर्दा और आत्माको पवित्र करे ऐसी भावना है वंदितु सव्व सिद्धे, धम्मायरिए अ सव्व साहू अ; इच्छामि पडिक्कमिउं, सावग धम्माइ आरस्स। (१) सर्व (अरिहंतों को), सिद्ध भगवंतो को, धर्माचार्यों (अ शब्द से उपाध्यायों) और सर्व साधुओं को वंदन करके, श्रावक धर्म में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करना (व्रतों मे लगी हुई मलिनता को दूर करना) चाहता हुँ |(१)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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