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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
अतिचार लगे हो उसका मैं शुभ काययोग से, शुभ वचनयोग से व शुभ मनोयोग से प्रतिक्रमण करता हूँ । (३४)
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वंदण वय सिक्खा गारवेसु सन्ना कसाय दंडेसु गुत्ती अ समिईसु अ, जो अइआरो अ तं निंदे । (३५) देववंदन या गुरुवंदन के विषय में, बारहव्रत के विषयमें, पोरिसि आदि पच्चक्खाण में, सूत्रार्थ का ग्रहण व क्रिया का आसेवन रूप शिक्षा, रिद्धि-रस- शाता का गौरव (अभिमान), आहार-भयमैथुन - परिग्रह संज्ञा, चार कषाय, मन-वचन-कायारूप तीन दंड तथा पाँच समिति व तीन गुप्ति के पालन के विषय में प्रमाद से जो अतिचार लगा हो उसकी मैं निंदा करता हूँ । (३५)
सम्मद्दिठी जीवो, जइ वि ह पावं समायरे किंचि हु अप्पो सि होई बंधो, जेण न निद्धधसं कुणइ | (३६) I
सम्यग्दृष्टि जीव (आत्मा) यद्यपि किंचित् पापमय प्रवृत्ति को जीवन निर्वाह के लिए करता है, तो भी उसे कर्मबन्ध अल्प होता है क्योंकि वह उसे निर्दयतापूर्वक कभी भी नहीं करता । (३६)
तंपि हु सपडिक्कमणं, सपरिआवं स उत्तर गुणं च खिप्पं उवसामेइ, वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो | (३७)
जैसे सुशिक्षित वैद्य, व्याधि का शीघ्र शमन कर देता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि श्रावक उस अल्प कर्मबंध का भी प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त-पच्चक्खाण आदि उत्तरगुण द्वारा शीघ्र नाश कर देता है । (३७)