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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
जहा विसं कुछ गयं, मंत मूल विसारया विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं । (३८) एवं अट्ठ विहं कम्मं, राग दोस समज्जिअं आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ । (३१)
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जैसे पेट में गये हुए जहर को मंत्र और जडीबुट्टी के निष्णात वैद्य मंत्रों से (जहर को ) उतारते हैं या जडीबुट्टी जिससे वह विषरहित होता है वैसे ही प्रतिक्रमण करनेवाला सुश्रावक अपने पापों की आलोचना व निंदा करता हुआ राग और द्वेष से उपार्जित आठ प्रकार के कर्म को शीघ्र नष्ट करता है । ( ३८.३९)
कय पावो वि मणुस्सो, आलोइअ निंदिअ गुरु सगासे
होइ अइरेग लहुओ, ओहरिअ भरुव्व भारवहो ।
(४०)
जैसे मजदूर सर पर से भार उतारते ही बहुत हल्का हो जाता है, वैसे पाप करने वाला मनुष्य भी अपने पापों की गुरू समक्ष आलोचना व निंदा करने से एकदम हल्का हो जाता है । (४०)
आवस्स एण एएण, सावओ जइवि बहुरओ होइ दुक्खाणमंत किरिअं, काही अचिरेण कालेण । (४१) जिस श्रावकने (सावद्य आरम्भादि कार्य द्वारा) बहुत कर्म बांधे हुए हैं फिर भी वह श्रावक इस छ आवश्यक द्वारा अल्प समय में दुःखों का अंत करता है । (४१)
(विस्मृत हुए कर्मोका अतिचार )
आलोअणा बहुविहा, न य संभरिआ पडिक्कमणकाले; मूलगुण उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि । (४२)