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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
सुहिए अ दुहिए अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा रागेण व दोसे व, तं निंदे तं च गरिहामि । (३१)
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सुखी अथवा दुःखी असंयमी पर राग या द्वेष से मैने जो अनुकंपा की हो उसकी मैं निंदा व गर्हा करता हूँ । ज्ञानादि उत्तम हितवाले, ग्लान और गुरु की निश्रामें विचरते मुनिओं की पूर्व के प्रेम के कारण या निंदा की द्रष्टि से जो (दूषित) भक्ति की हो, उसकी मैं निंदा व गर्हा करता हूँ । (३१)
साहूसु संविभागो न कओ तव चरण करण जुत्तेसु; ते फाअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि । (३२)
वहोराने लायक प्रासुक (निर्दोष) द्रव्य होने पर भी तपस्वी, चारित्रशील व क्रियापात्र मुनिराज को वहोराया न हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ व गर्हा करता हूँ । (३२)
(सामान्यसे बारह व्रतके अतिचार)
इह लोए पर लोए, जीविअ मरणे अ आसंस पओगे पंचविहो अइआरो, मा मज्झ हुज्ज मरणंते । (३३)
१) इहलोक संबंधी भोग की आसक्ति २ ) परलोक संबंधी भोग की आसक्ति ३) दीर्घ जीवन की आसक्ति ४) शीघ्र मरण की इच्छा, व ५) कामभोग की इच्छा, ये (संलेखना व्रत के) पाँच प्रकार के अतिचार मुझे मरण के अंतसमय में भी न हो । ( ३३ )
(तीन योगोसे सर्व व्रतके अतिचार )
काएण काइअस्स, पडिक्कमे वाइअस्स वायाए मणसा माणसिअस्स, सव्वस्स वयाइआरस्स | (३४)
मन, वचन व काया के अशुभ योग से सर्व व्रतोंमें मुझे जो