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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
"पडिसिद्धाणं करणे" प्रतिषेध- अभक्ष्य, अनंतकाय, बहुजीव भक्षण, महारंभ, परिग्रहादि किया । जीवाजीवादि सूक्ष्म विचार की सद्दहणा न की । अपनी कुमति से उत्सुत्र प्ररूपणा की तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रतिअरति, परपरिवाद, माया-मृषावाद, मिथ्यात्व- -शल्प, ये अठारह पाप-स्थान किये, कराये, अनुमोदे। दिनकृत्य प्रति क्रमण, विनय, वैयावृत्य न किया । और भी जो कुछ वीतराग की आज्ञा से विरुद्ध किया, कराया या अनुमोदन किया । इन चार प्रकार के अतिचारों में जो कोई अतिचार संवत्सरी - दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं II (१७)
एवंकारे श्रावकधर्म सम्यक्त्व मूल बारह व्रत संबंधी एक सौ चौबीस अतिचारों में से जो कोई अतिचार संवत्सरी-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब, मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
॥ इति श्री संवच्छरी अतिचार समाप्त ।।
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प्रतिक्रमण स्थापना सूत्र
सव्वस्स वि, संवच्छरीअ दुच्चितिअ, दुब्भासिअ, दुच्चिद्विअ,
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं. इच्छाकारी भगवन् ! पसाय करी संवच्छरीतप प्रसाद करशोजी