________________
श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
१३९
आणवण-प्पओगे, पेसवण-प्पओगे, सद्दाणुवाई, रूवाणुवाई बहिया-पुग्गल-पक्खेवे । नियमित भूमि में बाहिर से वस्तु मंगवाई। अपने पास से अन्यत्र भिजवाई। खुंखारा आदि शब्द करके, रूप दिखाके या कंकर आदि फेंक कर अपना होना जताया ।इत्यादि दसवें देशावकाशिक व्रत संबंधी जो कोई अतिचार संवत्सरीदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ।। (१०) । ग्यारहवें पौषधोपवास व्रत के पांच अतिचार संथारुच्चार विही' अप्पडिलेहिअ, दुप्पडि लेहिअ, सिज्जासंथारए | अप्पडिलेहिय दुप्पडि लेहिय उच्चार पासवण भूमि । (११)
पौषध लेकर कोने की जगह बिना पूणजे-प्रमार्जे सोया । स्थंडिल आदि की भूमि भली प्रकार शोधी नहीं। लघु नीति, बड़ी नीति करने या परठने के समय “अणुजाणाहजस्सुग्गहो” न कहा । परठे बाद तीन बार 'वोसिरे न कहा। जिनमंदिर और उपाश्रय में प्रवेश करते हुए निसीहि और बाहिर निकलते हुए आवस्सही तीन बार न कही। वस्त्र आदि का पडिलेहण न कीया । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय का संघट्टन हुआ |संथारा पोरिसी विधी पढ़नी भुलाई । बिना संथारे जमीन पर सोया । पोरिसी में नींद ली, पारना आदि की चिंता की । समय पर देववंदन न किया, प्रतिक्रमण न किया । पौषध देरी से लिया और जल्दी पारा,पर्व-तिथि को पोसह न लिया ।इत्यादि पौषध ग्यारहवें पौषध व्रत संबंधी जो कोई अतिचार संवत्सरी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब, मन, वचन, काया से मिच्छा मि दुक्कडं | (११)