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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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(संलेषणाका अतिचार) इह लोए पर लोए, जीविअ मरणे अ आसंस पओगे
पंचविहो अइआरो, मा मज्झ हुज्ज मरणंते । (३३) १) इहलोक संबंधी भोग की आसक्ति २) परलोक संबंधी भोग की आसक्ति ३) दीर्ध जीवन की आसक्ति ४) शीघ्र मरण की इच्छा, व ५) कामभोग की इच्छा, ये (संलेखना व्रत के) पाँच प्रकार के अतिचार मुझे मरण के अंतसमय में भी न हो | (३३)
(तीन योगोसे सर्व व्रतके अतिचार) काएण काइअस्स, पडिक्कमे वाइअस्स वायाए मणसा माणसिअस्स, सव्वस्स वयाइआरस्स | (३४) मन, वचन व काया के अशुभ योग से सर्व व्रतोंमें मुझे जो अतिचार लगे हो उसका मैं शुभ काययोग से,शुभ वचनयोग से व शुभ मनोयोग से प्रतिक्रमण करता हूँ | (३४)
वंदण वय सिक्खा, गारवेसु सन्ना कसाय दंडेसु गुत्तीसु अ समिईसु अ,जो अइआरो अतं निंदे । (३५) देववंदन या गुरुवंदन के विषय में, बारहव्रत के विषयमें, पोरिसि आदि पच्चक्खाण में, सूत्रार्थ का ग्रहण व क्रिया का आसेवन रूप शिक्षा, रिद्धि-रस-शाता का गौरव (अभिमान), आहार-भयमैथुन-परिग्रह संज्ञा, चार कषाय, मन-वचन-कायारूप तीन दंड तथा पाँच समिति व तीन गुप्ति के पालन के विषय में प्रमाद से जो अतिचार लगा हो उसकी मैं निंदा करता हूँ | (३५)
सम्मदिठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरे किंचि अप्पो सि होई बंधो, जेण न निद्धंधसं कुणइ | (३६)