________________
श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
सम्यग्दृष्टि जीव ( आत्मा ) यद्यपि किंचित् पापमय प्रवृत्ति को जीवन निर्वाह के लिए करता है, तो भी उसे कर्मबन्ध अल्प होता है क्योंकि वह उसे निर्दयतापूर्वक कभी भी नहीं करता । (३६)
११४
तं पि हु सपडिक्कमणं, सपरिआवं सउत्तर गुणं च खिप्पं उवसामेइ, वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो । (३७)
जैसे सुशिक्षित वैद्य, व्याधि का शीघ्र शमन कर देता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि श्रावक उस अल्प कर्मबंध का भी प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त-पच्चक्खाण आदि उत्तरगुण द्वारा शीघ्र नाश कर देता है । (३७)
जहा विसं कुड गयं, मंत मूल विसारया विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं । (३८)
एवं अट्ठ विहं कम्मं, राग दोस समज्जिअं आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ | (३१)
जैसे पेट में गये हुए जहर को मंत्र और जडीबुट्टी के निष्णात वैद्य मंत्रों से (जहर को ) उतारते हैं या जडीबुट्टी जिससे वह विषरहित होता है वैसे ही प्रतिक्रमण करनेवाला सुश्रावक अपने पापों की आलोचना व निंदा करता हुआ राग और द्वेष से उपार्जित आठ प्रकार के कर्म को शीघ्र नष्ट करता है । ( ३८,३९)
कय पावो वि मणुस्सो, आलोइअ निंदिअ गुरु सगासे
होइ अइरेग लहुओ, ओहरिअ भरुव्व भारवहो । (४०)