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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
( अतिथि संविभागके अतिचार)
सच्चित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएस मच्छरे चेव कालाइक्कम दाणे, चउत्थे सिक्खावए निंदे । (३०)
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मुनि को दान देने योग्य वस्तु में, १) सचित्त वस्तु डालना २) सचित्त वस्तु से ढँकना, ३) परव्यपदेश (दूसरों के बहाने देना या न देना), ४) ईर्ष्या-अभिमान से दान देना व न देना तथा ५) काल बीत जाने पर दान देने की विनंती करनी व आग्रह करना, चौथे शिक्षाव्रत अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार से बंधे हुए अशुभकर्म की मैं निंदा करता हूँ । (३०)
सुहिए अ दुहिए अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि । (३१)
सुखी अथवा दुःखी असंयमी पर राग या द्वेष से मैने जो अनुकंपा की हो उसकी मैं निंदा व गर्हा करता हूँ । ज्ञानादि उत्तम हितवाले, ग्लान और गुरु की निश्रामें विचरते मुनिओं की पूर्व के प्रेम के कारण या निंदा की द्रष्टि से जो (दूषित) भक्ति की हो, उसकी मैं निंदा व गर्हा करता हूँ । (३१)
साहूसु संविभागो न कओ तव चरण करण जुत्तेसु; संते फाअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि । (२)
वहोराने लायक प्रासुक (निर्दोष) द्रव्य होने पर भी तपस्वी, चारित्रशील व क्रियापात्र मुनिराज को वहोराया न हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ व गर्हा करता हूँ । (३२)