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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
रखना, जैसे ऊखल के पास मूसल रखना, ५) भोग के साधनों की अधिकता आदि के कारण लगे हुए अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ । (२६)
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(सामायिक व्रतके अतिचार)
तिविहे दुप्पणिहाणे, अण वट्ठाणे तहा सइ विहूणे समाइय वितह कए, पढमे सिक्खावए निंदे । (२७)
(१-२-३) मन-वचन-काया के दुष्प्रणिधान ( अशुभ प्रवृत्ति), ४) सामायिक में स्थिर न बैठना - चंचलता - अनादर सेवन तथा ५) सामायिक समय का विस्मरण, यह पाँच अतिचार प्रथम शिक्षाव्रत सामायिक में लगे हों, उनकी मैं निंदा करता हूँ । (२७)
(देशावगासिक व्रतके अतिचार)
आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे अ पुग्गलक्खेवे देसावगा सिअम्मि, बीए सिक्खा वए निंदे । (२८)
नियत मर्यादा के बाहर से १) वस्तु मंगवाना २) वस्तु बाहर भेजना ३) आवाज द्वारा या ४) मुखदर्शन द्वारा अपनी उपस्थिति बतलाना ५) कंकर, पत्थर आदि फेंकना, ये दूसरे देशावगाशिक शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार से बंधे हुए अशुभ कर्म की मैं निंदा करता हूँ । (२८)
(पौषध व्रतके अतिचार)
संथारुच्चार विहि पमाय तह चेव भोयणाभोए पोसह विहि विवरिए, तइए सिक्खावए निंदे | (23) (१-२-३-४) संथारा की भूमि व परठवणे की भूमि का प्रतिलेखन व प्रमार्जन में प्रमाद होने से ५) भोजनादि की चिंता द्वारा पौषध उपवास नामक तीसरे शिक्षाव्रत में जो कोइ विपरितता हुई हो (अतिचारों का सेवन हुआ हो) उसकी मैं निंदा करता हूँ । (२९)