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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
आचार तथा व्रतोमें लगे हुए अतिचारकी निंदा - गर्दा और आत्माको पवित्र करे ऐसी भावना है
वंदितु सव्व सिद्धे, धम्मायरिए अ सव्व साहू अ;
इच्छामि पडिक्कमिउं,
सावग धम्माइ आरस्स। (१) सर्व (अरिहंतों को), सिद्ध भगवंतो को, धर्माचार्यों (अ शब्द से उपाध्यायों) और सर्व साधुओं को वंदन करके, श्रावक धर्म में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करना (व्रतों मे लगी हुई मलिनता को दूर करना चाहता हुँ । (१)
(सामान्यसे सर्व व्रतके अतिचार) जो मे वयाइयारो, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ सुहुमो अ बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि। (२) मुझे व्रतों के विषय में तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र (अ शब्द से तपाचार, वीर्याचार, संलेखना तथा सम्यक्त्व) की आराधना के विषय में सक्ष्म या बादर (छोटा या बड़ा) जो अतिचार लगा (व्रतमें स्खलना या भूल हुई) हो, उसकी मैं (आत्मसाक्षी से) निंदा करता हुँ और (गुरुसाक्षी से) गर्हा (अधिक निंदा) करता हुँ । (२)
(परिग्रहके अतिचार) दुविहे परिग्गहम्मि, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे कारावणे अ करणे, पडिक्कमे देसि सव्वं । (३) सचित व अचित (अथवा बाह्य-अभ्यंतर) दो प्रकार के परिग्रह के कारण पापमय अनेक प्रकार के आरंभ (सांसारिक प्रवृत्ति) दुसरे से करवाते हुए और स्वयं करते हुए (तथा करते हुए की