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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित __ ६७
जन्माभिषेकः कृतः, सर्वैः सर्व सुरासुरेश्वर गणे,
स्तेषां नतोहं क्रमान् । (२) सर्व जातिके सुर और असुरोंके इन्द्रोंने जिस जिनेश्वरका जन्माभिषेक, हंसके पाँखों से उड़े हुए कमल-परागसे पीले हुए क्षीर समुद्रके जलसे भरे हुए सुवर्ण के घड़ोसे, जो अप्सराओंके स्तन-समूहसे स्पर्धा करते है, उस सुवर्णके घड़ोसे मेरुपर्वतके रत्नशैल नामक शिखर पर किया है, उन जिनेश्वरके चरणोंमें मैं नमन करता हूँ |(२)
( गाथा पूरी होनेसे 'नमो अरिहंताणं' बोलकर काउस्सग्ग पारना।)
अज्ञानरुपी अंधकारके समूहका नाश करनार श्रुतज्ञानरुप आगमकी स्तुति a पुक्खरवर दीवड्ढे,
धायइ संडे य जंबुदीवे य भर हेर वय विदेहे, धम्माइगरे नमसामि (१) तम तिमिर पडल विद्धं सणस्स,
सुरगण नरिंद-महियस्स सीमा धरस्स वंदे, पप्फोडिय मोहजालस्स (२)
जाइ जरा मरण सोग पणासणस्स, कल्लाण पुक्खल विसाल सुहावहस्स। को देव दाणव नरिंद गण च्चिअस्स, धम्मस्स सार मुवलब्भ करे पमायं (३)