SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुजरातका इतिहास । [ १८६ भतीजा तथा कान्यकुब्जके राजा शिलादित्यके लड़केका जमाई था। नाम उसका ध्रुवपद था । यह बौद्ध धर्मको मानता था । इसने बौद्धोंके लिये अर्हतप्रचार नामका मठ बनवादिया था। जहां बोधिसत्त्व साधु गुणमति और स्थिरमति रहते थे। इन्होंने शास्त्र बनाए थे। वल्लभीके ताम्रपत्र पाए गए हैं । यहां मंदिर व मकान ईटों और लकड़ीके होते थे, परन्तु एक ही मंदिरका यहां पता चला है जो गोपीनाथपर है । (Burges Kathiawar and Kutch 1897). एक ऐसा लकड़ी व ईंटोंका मंदिर शत्रुजय पर्वत व एक सोमनाथपर था ऐसा पता लगा है । कहते हैं कि अनहिलवाड़ाके राजा कुमारपाल सोलंकी (सन ११४३-११७४) का मंत्री शत्रुज्जय पर्वतपर श्री आदिनाथजीके जैन मंदिरमें पूजनको आया था तब तक चूहेने दीवेकी बत्तीसे मंदिरमें अग्नि लगा दी और लकड़ीका मंदिर भस्म होगया । तब मंत्रीने पाषाणके मंदिर बनानेका इरादा किया । ( कुमारपाल चरित्र ) सोमनाथमें भद्रकालीका मंदिर पहले लकड़ीका था फिर उसको भीमदेव (१०२२-१०७२ ) ने पाषाणका बनाया, ऐसा लेखसे प्रगट है। वल्लभी वंशके जो ताम्रपत्र हैं उनमें वृषभका चिन्ह है तथा भट्टारक शब्द आता है। ये सब संस्कृतमें हैं । वल्लभी संवत सन् ई० ३१९ में शुरू हुआ है । वल्लभी राजाओंके प्रबंधमें इस भांति नाम प्रसिद्ध थे। (१) आयुक्तिक या विनियुक्तिक-मुख्य अधिकारी ।
SR No.007291
Book TitleMumbai Prant ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherManikchand Panachand Johari
Publication Year1925
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy