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देश में जैनधर्मं मात्र सुप्रतिष्ठित ही नहीं था किन्तु धनवान ब्राह्मण भी जैनधर्म और जैनाचार्यों के प्रति अनुराग प्रगट करते थे एवं आवश्यक्ता के लिए भूमिदान कर सहायता करते थे । इस का विशेष उल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि बटगोहाली का यही जैन विहार ईसा की पांचवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में पौंड्रवर्धन नगर के समीप अवस्थित था तथा सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में ह्य ू सांग ने पौंड्रवर्धन प्रदेश में बहुत
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भी
निथ देखे थे ।
संभवतः ईसा पूर्व ३०० वर्ष में पाटलीपुत्र नगर में जैन
बचा लिये गये क्योंकि
संप्रदाय की एक सभा निमंत्रित की गयी थी, एवं इस सभा में जैनों के धर्मशास्त्र समूह को भलीभांति वर्गीकरण तथा सुरक्षित किया गया और - उस के उत्तरकाल में इन शास्त्रों के लुप्त होने का प्रसंग आने पर भी ये लुप्त होने से गुप्त सम्राट के अभ्युदय के - चरम समय ई० स० ४५४ गुजरात के अन्तर्गत वल्लभी नगरी में एक और सभा निमंत्रित की गयी । जिस में जैनधर्म शास्त्रों को फिर से सुरक्षित व लिपिबद्ध किया गया। यही शास्त्र समूह वर्त्तमान जैनधर्म का इतिहास रचने के लिए इतिहासकारों के लिये प्रधान साधन है। पांचवीं शताब्दी में इस शास्त्रसमूह की कोई नवीन रचना नहीं की गयी थी किन्तु प्राचीन शास्त्र समूह को ही मात्र लिपिबद्ध किया गया था । यही कारण है कि इस शास्त्र समूह से ही बहुत प्राचीन इतिहास जाना जा सकता है । किन्तु स्थान स्थान पर इन ग्रंथों में उत्तरकालीन प्रभाव भी दीख पड़ता है ।