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गुप्रयुग में (ई० स० ३१६ से ५५०) बंगाल देश में ब्राह्मणधर्म की अवस्था कैसी थी। अर्थात् किस किस देवता के लिये मंदिर-निर्माण और उपासना होती थी; इस विषय की संक्षिप्त आलोचना की है। फाहियान के विवरण से यही अनुमान होता है कि उस समय इस देश में बौद्धधर्म भी यथेष्ठ प्रबल था तथा संभवतः सातवीं शताब्दी की अपेक्षा प्रबलतर ही था। दुःख का विषय है कि फाहियान ने (ई० स० ४०५ से ४११) बंगालदेश के धर्म संप्रदायों के विषय में विस्तृत उल्लेख नहीं किया। उस ने मात्र चम्पा (भागलपुर) और ताम्रलिप्ति का सामान्य विवरण ही लिखा है (Legge. P. 100)।
गुप्तयुग में बंगालदेश में जैन संप्रदाय की अवस्था कैसी थी। इस विषय का कोई विशेष विवरण नहीं पाया जाता । किन्तु उस समय भी निश्चय ही बंगाल में जैनधर्म का खूब अधिक प्रभाव था। नहीं तो घसांग के समय बंगाल में जैन धर्म का इतना प्रभाव होना संभव न था । पहाड़पुर में (राजशाही जिले से) प्राप्त हुए ताम्रपत्र से मालूम होता है कि ई० स० ४७६ में नाथशर्मा एवं रामी नामक ब्राह्मण दम्पती ने पौंड्रवर्धन (बगुड़ा जिलांतर्गत वर्तमान महास्थानगढ़) निकटवर्ती “बटगोहाली" (आधुनिक गोमालभिटा पहाड़पुर के समीप) नामक स्थान में जैन विहार की पूजा अर्चनार्थ सहायता करने के उद्देश से कुछ भूमि दान दी थी। उस समय उस विहार में श्रमणाचार्य निग्रंथ गुहनन्दी के शिष्य प्रशिष्य मौजूद थे (E.P. Ind. XX. P. P. 61. 63)। इस से ज्ञात होता है कि गुप्तयुग में बंगाल