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________________ ( २६ ) और आचार्य महाराज के परम भक्त दयालशाह भी विजयगच्छ की मान्यतावाले थे, और पूरे धर्मिष्ठ श्रद्धावन्त श्रावक थे । इस लिये आपने अपने गुरु महाराज की मूर्त्ति तीर्थ केसरियाजी में स्थापित कर गुरुभक्ति बतलाई हो तो यथास्थाने समझना चाहिये । और उपयुक्त प्रमाणों से यह भी भली प्रकार सिद्ध होता है कि संवत् १७३२ से लगा कर संवत् १७५६ तक दयालशाह के जमाने में श्रीमान् विजयसागरजी महाराज के समय भी पहले के मुवाफिक श्वेताम्बर समाज का सम्पूर्ण अधिकार था । इस प्रकार श्रीकेसरियाजी महाराज के प्रतिमाजी व बावन जिनालय में स्थापित हैं उन के विषय में विचार करने बाद बाहर के हिस्से में जो श्रीजगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है उन का वर्णन वहां की प्रशस्ति से ज्ञात हो जाता है । जिस की नकल इस पुस्तक में आ चुकी है. श्रीजगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा जमीन में से प्राप्त हुई है, एसे लेखवाली प्रशस्ति मन्दिर में मौजूद है । और इस प्रतिमा के साथ और भी प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं । जिन सब की प्रतिष्ठा सम्वत् १८०१ में तपागच्छाचार्य श्रीसुमतिचन्द्रजीने कराई है, एसा उल्लेख प्रशस्ती में है । और जमीन में से श्वेताम्बरीय प्रतिमा का प्राप्त होना इस बात की
SR No.007283
Book TitleKesariyaji Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherSadgun Prasarak Mitra Mandal
Publication Year1934
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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