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________________ ( १२ ) १९८३ में प्रकाशित कराया है उस में इस विषय का उल्लेख अवश्य किया होता | श्रीमान् बाबू साहब के लेख संग्रह में लेख नम्बर ६३८ में सम्वत् १४४३ छप गया है, लेकिन शिलालेख में सम्वत् १८४३ है । जा प्रुफ संशोधन में द्रष्टिदोष से १४४३ छप गया है । हम इतना जरुर कहेंगे कि यही लेख सम्वत् १४४३ का मान लिया जाय तो और ज्यादे प्राचीनता सिद्ध होती है, लेकिन इतिहास मना करता है, क्यों कि इस लेख में श्रीमान् जिनभक्तिसूरिजी व श्रीमान् जिनलाभसूरिजी नाम के श्वेताम्बराचार्यों का बयान है, और यह पन्द्रहवीं सदी में नहीं वे । इन के लिये तो उन्नीसवीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। देखिये बाबूसाहब के लेख संग्रह प्रथम विभाग में लेख नम्बर ३०२ व लेख नम्बर ३०३ और ६०० " सं. १८२० वर्षे मिः मि. सु. ३ श्रीम. जिनलाभसूरि.... (३०२) " " सं १८२० वर्ष मिः मा. सु. ५ श्री भ० जिनलाभसूरि प्र० धीरगोत्रे ~ मोती चंदकारीजिनः ..... । (३०३)” " सं. १८२१ मि. वै. सुदी ३ श्री पार्श्वजिन भ० श्री जिनलाभसू० यति हीरानंद करापितं .... । ( ६०० ) " उपर के शिलालेखों से पता चलता है कि श्रीमान् जिन
SR No.007283
Book TitleKesariyaji Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherSadgun Prasarak Mitra Mandal
Publication Year1934
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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