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सौ वर्ष पहले की बनी हुई है, जो नित्याऽनुष्ठान में बोली जाती है ।
लावनी.
रिखबदेव तो बडे देव हे, जिन की शोभा अती भारी || धूलेव नगर में आप बिराजे, आदिनाथ प्रभु अधिकारी || श्रकणी || सरसती माता सूमतकी दाता, तुंही विधाता त्रीपुरारी ॥ कल बुध तुम देवो इश्वरी, कहुं लावनी हद प्यारी ॥ २ ॥ अनड परवतां अनड पहाडां, जगां घणी हे अती भारी || देस प्रदेसी श्रवे जातरी, सांवली सूरत पर बलिहारी ॥ ३ ॥ नाभीराय कुल भाण प्रगट हे, मोरादेवी का तुम नंदा || तिलक भाल सिर छत्र बिराजे, मुख हे सरद पुनम चंदा ॥ ४ ॥ काने कुंडल सिर छत्र बिराजे, बांहे बेरखा हद सोहे ॥ सांवरी सुरत हद मुरत बिराजे, सब संतन का मन मोहे ॥ ५ ॥ चांगी अजब बनी प्रभुजी की, कुंडल की छबी हे न्यारी ॥ गले मोतयन को हार बिराजे, सुंदर मुरत हद प्यारी ॥ ६ ॥ समरण करता प्राछीत जावे, दरसण से दिल होवे राजी ॥ रोग सोग सब जाय भाज कर, गल जावे दुसमण पाजी ||७|| चार खंड में नाम तुम्हारा, ध्यान धरे सब मुनि वंदा || राव राणा सब आय नमें हे, करे सबन कुं पाबंदा ॥ ८ ॥ अनंत काल पें करें वीनति, जिन का कारज तुम सारो ॥ वाट घाट में तुम कुं ध्यावे, जीन का कारज तुम सारो ॥ ६ ॥