SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा अध्याय : अपराध और दण्ड ७३ भावना पैदा कर, उसकी कुशल-क्षेम पूछकर, उसे संकेत देकर, न पकड़वाने में उसकी मदद कर, जिस मार्ग से चोर गया हो उस मार्ग का उलटा पता बताकर, तथा उसे स्थान, आसन, भोजन, तेल, जल, अग्नि और रस्सी आदि प्रदान कर चोर का हौसला बढ़ाया जाता था, और ऐसा करनेवालों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था।' संध लगाना . . प्राचीन ग्रन्थों में सेंध लगाने के विविध प्रकार बताये गये हैं। कपिशीर्ष ( कंगूरा), कलश, नन्दावर्त, कमल, मनुष्य और श्रीवत्स के आकार की सेंध लगाई जाती थी। एक बार किसी चोर ने सेंध लगाकर उसमें से घर के अन्दर प्रवेश करना चाहा। वह पांवों के बल अन्दर घुसा ही था कि मकान-मालिक ने उसके पांव पकड़कर खींच लिए। इधर से चोर के साथियों ने उसका सिर पकड़कर खींचना आरम्भ किया । इतने में कपिशीर्ष के आकार की सेंध टूट कर गिर पड़ी, और चोर उसी में दबकर मर गया। चोर पानी की मशक (दकबस्ति) १. वही। २. अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा (१, पृ० २६५) में नन्दियावत्त का अर्थ एक बड़ा मत्स्य किया गया है, मलालसेकर, डिक्शनरी ऑव पाली प्रोपर नेम्स २, पृ० २६ । ३. उत्तराध्ययन ४, पृ० ८० इत्यादि, पृ० ८७ । मृच्छकटिक (३.१४) में पद्यव्याकोश, भास्कर, बालचन्द्र, वापी, विस्तीर्ण, स्वस्तिक और पूर्णकुम्भ नामक 'सेंधों का उल्लेख है । भगवान् कनकशक्ति के आदेशानुसार यदि पक्की इंटों का मकान हो तो इंटों को खींचकर, कच्ची इटों का हो तो इंटों को तोड़कर, मिट्टी की इटों का हो तो ईंटों को गीला कर तथा लकड़ी का मकान हो तो लकड़ी को चीरकर सेंध लगानी चाहिये (वही, पृ० ७२-७३)। भास के चारुदत्त नाटक (३.९, पृ० ५६) में सिंहाक्रान्त, पूर्णचन्द्र, झषास्य, चन्द्रार्थ, व्याघ्रवक्त्र और त्रिकोण आकार की सेंधे बतायी गयी हैं। जातक ग्रन्थों में कहा है कि सेंध इस प्रकार लगानी चाहिए जिससे बिना किसी रुकावट के घर में प्रवेश किया जा सके । चोर को चोरी करते समय यथासम्भव निर्दयता से काम लेना चाहिए तथा चोरी का माल ले जाते समय घर का कोई श्रादमी पकड़ न ले इसलिए ऐसे आदमियों को पहले से ही खत्म कर देना चाहिए (महिलामुख जातक २६) । दशकुमारचरित (२, पृ०.७७, १३४) में उल्लेख है कि फणिमुख और उरगास्य नामक औजारों से सेंध लगाई जाती थी।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy