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________________ ७४ जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज और तालोद्घाटिनी विद्या आदि उपकरणों से सज्जित हो प्रायः रात्रि के समय अपने दलबल के साथ निकलते।' .. चोरों के गांव चोर अपने साथियों के साथ चोरपल्लियों में रहा करते । पुरिमताल नगर के उत्तर-पूर्व में एक गहन अटवी थी; यहाँ विषम पर्वत की गुफा में सन्निविष्ट, बांसों की बाड़ और गड्ढों को खाई से घिरी हुई एक चोरपल्ली थी। इसके आसपास पानी मिलना दुर्लभ था, और बाहर जाने के यहां अनेक गुप्त मार्ग थे। विजय नाम का चोर-सेनापति ५०० चोरों के साथ यहां निवास करता था। वह अधार्मिक, शूरवीर, दृढ़प्रहारी, शब्दवेधी और तलवार के हाथ दिखाने में निपुण था तथा उसके हाथ खून से रंगे रहते थे। वह ग्राम और नगरों का नाश कर, गायों को पकड़कर, लोगों को बन्दी बनाकर और उन्हें मार्गभ्रष्ट कर कष्ट पहुँचाता था। अनेक चोर-उचक्के, परदारगामी, गंठकतरे, सेंध लगाने वाले तथा जुआरी और शराबी उसके यहाँ आकर शरण लेते। __राजगृह के पास सिंहगुहा नामक एक दूसरी चोरपल्ली थी, इसके चोर-सेनापति का नाम भी विजय था। वह बड़ा निर्दयी और रौद्र स्वभाव का था। आँखें उसकी लाल और दाढ़े बीभत्स थीं, दांत बड़े होने से ओठ खुले रहते थे, लम्बे केश हवा में इधर-उधर उड़ते थे, और रंग उसका काला स्याह था। सर्प के समान वह एकांत-दृष्टि, छरे के समान एकांत-धार, गृध्र के समान मांस-लोलुप, अग्नि के समान सर्वभक्षी और जल के समान सर्वग्राही था । वंचना, माया और १--ज्ञातृधर्मकथा १८, पृ० २१० । घर के अन्दर प्रवेश करने के पहले चोर काकली (एक प्रकार का वाद्य) बजाकर देखते कि कोई आदमी जाग तो नहीं रहा है । वे लोग संडसी, लकड़ी का बना पुरुष-शिर, मापने की रस्सी, कर्कट-रज्जु, दीपक का ढक्कन, दीपक बुझाने की पतंगों की डिबिया (भ्रमरकरंडक-इसे आग्नेयकीट भी कहा गया है, देखिए राधागोविंद बसक, इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टर्ली, जिल्द ५, १६२६, पृ० ३१३); तथा अदृश्य होने के लिए, गुटिका और अंजन आदि साज-सामान लेकर चलते, दशकुमारचरित, २, पृ०, ७ ७; भास, चारुदत्त ३, पृ० ५८।। २. विपाकसूत्र ३, पृ० २०-२१; प्रश्नव्याकरण ११, पृ० ४६-४६ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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