SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज २ का विशेष हाथ रहा करता । अन्तःपुर अनेक प्रकार के होते थे । जीर्णअन्तःपुर में, जिनका यौवन ढल गया है, ऐसी अपरिभोग्य स्त्रियां रहती थीं, नव- अन्तःपुर यौवनवती परिभोग्य स्त्रियों का निवास स्थान था, तथा कन्या - अन्तःपुर में यौवन को अप्राप्त कन्याएं रहती थीं । राजा के अन्तःपुरः में एक-से-एक बढ़कर सैकड़ों स्त्रियां निवास करती थीं और राजा उनके पास क्रम से जाता था । अन्तःपुर को अधिकाधिक समृद्ध और आधुनिक बनाने के लिए राजा सदा यत्नशील रहता, और बिना किसी जातीय भेदभाव के सुन्दर कन्याओं और स्त्रियों से उसे सम्पन्न करता रहता । कहते हैं भरत चक्रवर्ती का अन्तःपुर ६४ हजार स्त्रियों से शोभित था । कांचनपुर के राजा विक्रमयश के अन्तःपुर में ५०० रानियां थीं । उसी नगर में नागदत्त नाम का एक सार्थवाह रहा करता था। राजा उसको रूपवती पत्नी को देखकर मुग्ध हो गया और उसे अपने अन्तःपुर में रख लिया । नागदत्त ने राजा से बहुत प्रार्थना की कि वह उसकी पत्नी लौटा दे, लेकिन राजा ने एक न सुनी। अन्त में शोक से पागल होकर नागदत्त ने प्राण त्याग दिये । अवरकंका के राजा पद्मनाभ का अन्तःपुर ७०० सुन्दर महिषियों से शोभित था । उसे इस बात का गर्व था कि उसके अन्तःपुर से बढ़कर और कोई अन्तःपुर नहीं है । एक दिन घूमते-घामते नारदजी (कच्छुल्ल नारद) वहाँ आ पहुँचे । राजा ने पूछा - "महाराज ! क्या आपने मेरे अन्तःपुर जैसा अन्तःपुर और कहीं देखा है ?" नारद ने हंसकर उत्तर दिया-“तुम कूपमण्डूक हो; राजा द्रुपद की कन्या द्रौपदी १. निशीथचूर्णी ६. २५१३ की चूर्णी । २. उत्तराध्ययनटीका ६, पृ० १४२ । ३. उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २३२ - । बंधनमोक्ख जातक ( १२०, पृ० ४० ) में अन्तःपुर में १६,००० नर्तकियों का उल्लेख है । तथा देखिए अर्थशास्त्र १.२०.१७; रामायण २.१०.१२ इत्यादि; ४.३३.१६ इत्यादि । ४. उत्तराध्ययमटीका १८, पृ० २३६ । तथा देखिये दशवैकालिकचूर्णी ३, पृ० १०५ | मणिचोर जातक ( १६४ ) में एक राजा की कहानी है जो बोधिसत्व की पत्नी को देखकर उस पर आसक्त हो गया। राजा ने किसी आदमी को भेजकर बोधिसत्व की गाड़ी में चुपके से एक मणि रखवा दी । फिर राजपुरुषों ने उसे चोर घोषित कर शूली पर चढ़वा दिया; तथा धम्मपद
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy