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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
की प्राचीनता का पता चलता है कि वलभी-वाचना के समय, ईसवी सन् की पांचवीं-छठी शताब्दी के पूर्व ही संभवतः यह साहित्य लिखा जाने लगा था । अन्य स्वतंत्र नियुक्तियों में पंचमंगलश्रुतस्कंधनियुक्ति, संसक्तनियुक्ति, गोविंदनियुक्ति और आराधनानियुक्ति मुख्य हैं। नियुक्तियों के लेखक परम्परा के अनुसार भद्रबाहु माने जाते हैं, जो छेदसूत्र के कर्ता अंतिम श्रुतकेवलि से भिन्न हैं ।
नियुक्तियों की भांति, भाष्य - साहित्य भी प्राकृत गाथाओं में, संक्षिप्त शैली में, आर्या छंद में लिखा गया है। कितने हो स्थलों पर नियुक्ति और भाष्य की गाथाएँ परस्पर मिश्रित हो गयी हैं, इसलिए अलग से उनका अध्ययन करना कठिन है । नियुक्तियों की भाषा के समान भाष्यों की भाषा भी मुख्यरूप से प्राचीन प्राकृत अथवा अर्धमागधी ही है । अनेक स्थलों पर मागधी और शौरसेनी के प्रयोग देखने में आते हैं । सामान्य तौर पर भाष्यों का समय ईसवी सन् की चौथी - पांचवीं शताब्दी माना जाता है । निशोथ, व्यवहार, कल्प, पंचकल्प, जीतकल्प, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, पिंड नियुक्ति और ओघनियुक्ति इन सूत्रों पर भाष्य लिखे गये हैं । इनमें निशोथ, व्यवहार और कल्पभाष्य खासकर जैन संघ का प्राचीन इतिहास अध्ययन करने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। इन तीनों भाष्यों के कर्ता संघदासगण क्षमाश्रमण हैं जो हरिभद्रसूरि के समकालीन थे और वसुदेवहिण्डी के कर्ता संघदासगणि वाचक से भिन्न हैं । आगमेत्तर ग्रन्थों में चैत्यवंदन, देववंदनादि और नवतत्त्वगाथाप्रकरण आदि पर भी भाष्यों की रचना हुई ।
आगमों के ऊपर लिखे हुए व्याख्या - साहित्य में चूर्णियों का स्थान अत्यन्त महत्व का है । यह साहित्य गद्य में है । संभवतः जैन तत्वज्ञान और उससे सम्बन्ध रखने वाले कथा - साहित्य का विस्तारपूर्वक विवेचन करने के लिए पद्य - साहित्य पर्याप्त न समझा गया । इसके अतिरिक्त जान पड़ता है कि संस्कृत की प्रतिष्ठा बढ़ जाने से शुद्ध प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत-मिश्रित प्राकृत में साहित्य का लिखना आवश्यक समझा जाने लगा । इस कारण इस साहित्य की भाषा को मिश्र प्राकृत भाषा कहा जा सकता है । आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रतिस्कंध, जीतकल्प, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, नन्दी और