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परिशिष्ट २
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लिए (कुमारभुती ) दी गयी थी । जब वह आठ वर्ष का हुआ तो उसकी सौतेली माँ ने ईर्ष्यावश उसकी आंखें फुड़वाकर उसे अंधा कर दिया | कुछ समय पश्चात् कुणाल सम्राट् अशोक के दरबार में उपस्थित हुआ और उसने अपने पुत्र सम्प्रति के लिए राज्य की याचना को । अशोक ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की ।
सम्प्रति उज्जयिनी का शासक हो गया धीरे-धीरे उसने दक्षिणापथ जोत लिया और सीमाप्रान्त के क्षेत्रों को अपने वश में कर लिया । जैन धर्म में सम्प्रति को जैन श्रमण संघ का परम प्रभावक बताया गया है। नगर के चारों द्वारों पर उसने दान की व्यवस्था की और श्रमणों को वस्त्र आदि दान में दिये । भोजनालयों में दीन, अनाथ और पथिकों के खाने से जो भोजन अवशेष रहता, उसे वह जैन साधुओं को दिलवाता था ( जैन साधुओं के लिए राजपिंड का निषेध है ) । भोजन के बदले रसोइयों को वह उसका मूल्य दे देता था । प्रत्यन्त देशों के राजाओं को बुलाकर उसने श्रमणों के प्रति भक्तिभाव प्रदर्शित करने का आदेश दिया था । अपने दण्ड, भट और भोजिकों को साथ लेकर वह रथयात्रा के साथ चलता, तथा रथ पर पुष्प, फल, गंध, चूर्ण, कपर्दक ( कौड़ी ) और वस्त्र आदि चढ़ाता । चैत्यगृह में स्थित भगवान् की प्रतिमा की पूजा वह बड़े ठाट से करता अन्य राजा भी अपनेअपने राज्यों में रथयात्रा का महोत्सव मनाते । राजाओं से वह कहा करता कि द्रव्य की उसे आवश्यकता नहीं, यदि वे लोग उसे अपना स्वामी मानते हैं तो उन्हें श्रमणों की पूजा भक्ति करनी चाहिए | उसने अपने राज्य में अमाघात ( मत मारो ) की घोषणा की और जैन चैत्यों का निर्माण कराया। अपने योद्धाओं को साधु वेष में भेजकर उसने आंध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र और कुडुक्क ( कुर्ग ) आदि प्रत्यंत देशों को जैन श्रमणों के सुखपूर्वक विहार करने योग्य बनाया । वस्तुतः
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उसके आदेश से
१. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका २९२ आदि; १.३२७५ आदि; निशीथचूर्णी ५.२१५४ की चूर्णी, पृ० ३६१ । बौद्ध परम्परा के लिए देखिए बी०सी० लाहा, ज्याग्रफिकल ऐस्सेज़, पृ० ४४ आदि । -
२. बृहत्कल्पभाष्य १.३२७८-८९; निशीथचूर्णी १६.५७५४-५८, पृ० १३१; तथा देखिए स्थविरावलिचरित ११ ।