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४९८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
सगर द्वितीय चक्रवर्ती थे। भरत के समान उन्होंने भी दिग्विजय की और भरत क्षेत्र के छह खण्डों को अपने वश में किया। उनके अनेक पुत्र हुए। एक बार उनका सबसे ज्येष्ठपुत्र जण्हकुमार, अपने पिता की आज्ञा लेकर, अपने लघु भ्राताओं के साथ, पृथ्वी-परिभ्रमण के लिए चला | वह अष्टापद पर्वत पर पहुँचा । यहां उसने भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मित चैत्यों के दशन किये । उसने सोचा कि चैत्यों की रक्षा के लिए पर्वत के चारों ओर एक खाई खोद देना ठीक होगा। यह सोचकर वह दण्डरत्न को सहायता से अपने भाइयों के साथ पृथ्वी खोदने में जुट गया । इससे पृथ्वी के नोचे रहने वाले नागों के निवासस्थानों को क्षति पहुँची, और भयभीत होकर वे दौड़े-दौड़े अपने राजा ज्वलनप्रभ के पास पहुँचे । गुस्से में भरा ज्वलनप्रभ सगर के पुत्रों के पास पहुँचा। लेकिन जण्हुकुमार ने नागराज को बहुत अनुनयविनय कर के उसे शान्त किया कि हम लोगों का इरदा आपको कष्ट पहुँचाने का बिल्कुल भी नहीं था, हम लोग तो चैत्यों को रक्षा के लिए खाई खोद रहे थे । खैर, खाई तैयार हो गयी, लेकिन जब तक उसे पानी से न भर दिया जाये तबतक किस काम की ? ऐसी हालत में जण्हुकुमार ने अपने दण्डरत्न से गंगा को फोड़ना शुरू किया । खाई जल से भर गयी, लेकिन यह जल नागों के घरों में प्रवेश कर गया । ज्वलनप्रभ को अब को बार बहुत क्रोध आया। उसने सगर के पुत्रों के पास विषयुक्त बड़े-बड़े फणधारो सप भेजे जिससे वे जलकर भस्म हो गये।
कुछ समय पश्चात् अष्टापद के आसपास रहने वाले लोग इकट्टे होकर सगर के पास पहुँचे, और उन्होंने निवेदन किया कि महाराज, गंगा के जल से गावों में बाढ़ आ गयी है। यह सुनकर सगर ने अपने पौत्र भगीरथ को बुलाया और उससे फौरन ही अष्टापद के लिए खाना हो, गंगा के जल को खोंच कर, पूर्वी समुद्र में ले जाने का आदेश दिया । भगोरथ ने आज्ञा का पालन किया और लौटकर इसकी सूचना सगर को दो। सगर चक्रवर्ती ने संसार त्यागकर श्रमण दीक्षा स्वीकार को ।' ध्ययनटीका १८, पृ० २३२-अ, वसुदेवहिंडी पृ० १८६ आदि । तथा शूबिंग, वही, पृ० २२; तथा देखिए महाभारत १.१०१ ।
१. उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २३३-अ आदि; वसुदेवहिंडी, पृ० ३००, ३०४ आदि तथा तुलना कीजिए महाभारत ३.१०५ आदि; रामायण १.३८ आदि; चूलवंस ८७.२३ ।।