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________________ परिशिष्ट २ ४९७ देशों में प्रवेश किया। यहां पिक्खुर, कालमुख और जोणक नामक म्लेच्छों तथा वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में निवास करने वालों म्लेच्छों को जीता, तथा दक्षिण-पश्चिम से सिन्धुसागर तक के प्रदेश और अन्त में अत्यन्त रमणीय कच्छ देश पर विजय प्राप्त की । उसके बाद तिमि गुहा में प्रवेश किया और अपने सेनापति को उसके दक्षिणी द्वार को उद्घाटन करने का आदेश दिया । फिर उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की नदियों को पार किया, और आवाड़ नामक किरातों को पराजित किया। ये किरात भरत के उत्तरार्ध में निवास करते थे, तथा वे धनसम्पन्न, अहंकारी, शक्तिशालो, जोशोले और पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों को भांति जान पड़ते थे । तत्पश्चात् भरत ने क्षुद्र हिमवंत को जीता और ऋषभकूट पर्वत को ओर कदम बढ़ाया। यहां पहुँचकर उन्होंने अपने काकणी रत्न द्वारा अपना नाम लिखा जिसमें अपने आपको प्रथम चक्रवर्ती घोषित किया। उसके बाद वैताढ्य पर्वत के उत्तर की ओर चले जहां नमि और विनमि नामक विद्याधरों ने उन्हें सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न अर्पित किया । फिर गंगा के ऊपर विजय प्राप्त की और वे गंगा नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित खण्डप्रपात नामक गुफा की ओर मुड़े। यहां पहुँचकर उन्होंने अपने सेनापति को गुफा का उत्तरी द्वार खोलने का आदेश दिया। यहां पर भरत को नवनिधियों की प्राप्ति हुई । इस प्रकार भरत चक्रवर्ती चौदह रत्नों से विभूषित हो अपनी राजधानी विनीता को लौट गये, जहां बड़ी धूमधाम से उनका राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ । राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात् भरत ने अपने ९८ भाइयों के पास सन्देश भिजवाया कि या तो वे उसकी सेवा में उपस्थित हों, नहीं तो देश छोड़कर अन्यत्र चले जायें । यह सुनकर सब भाइयों ने ऋषभ के पादमूल में बैठकर जिन दीक्षा स्वीकार की । तत्पश्चात् भरत ने तक्षशिला को राजदूत भेजा । यहां बाहुबलि राज्य करते थे | बाहुबलि को उन्होंने चक्रवर्ती की आज्ञा शिरोधार्य करने का सन्देश भिजवाया । इस पर दोनों भाइयों में युद्ध ठन गया, और अन्त में बाहुबलि ने अपना राज्य छोड़कर दीक्षा ले ली । कालान्तर में भरत ने भी दीक्षा स्वीकार की और तपश्चरण पूर्वक अष्टापद पर्वत पर मुक्ति पाई । इसी समय से भरत के नाम पर हिन्दुस्तान का नाम भारतवर्ष पड़ा ।' १. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २.४१-७१; आवश्यकचूर्णी पृ० १८२-२२८; उत्तरा३२ जै०
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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