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४९२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज अनुपायो बताया है, वैसे हो जैनों ने भी उन्हें जैनधर्म का अनुयायी माना है। इससे यहो सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत के शासक विभिन्न सम्प्रदायों के धर्म गुरुओं के प्रति समान आदर का भाव प्रदर्शित करते थे, तथा सर्व-साधारण जनता कट्टरपंथी नहीं थी जैसा कि हम आगे चलकर पाते हैं ।
तरेसठ शलाका पुरुष जैनधर्म के अनुसार, युगों को दो कल्पों में विभक्त किया गया है-अवसिर्पिणी और उत्सर्पिणी । अवसर्पिणी काल में धर्म को अवनति होती जाती है, और अन्त में इस भूमण्डल पर प्रलय छा जाता है, जब कि उत्सर्पिणी काल में धर्म की उन्नति होती जाती है। इन कल्पों को छह भागों में विभाजित किया गया है-सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा । सुषमा सुषमा नाम के प्रथम काल में सुख ही सुख होता है, जब कि युगलिया संतान पैदा होती हैं और उनके पैदा होते ही उनके माता-पिता का देहान्त हो जाता है । इस युग में कल्पवृक्षों द्वारा लोगों की समस्त आवश्यकताएं पूरी होती हैं। दुषमा-दुषमा नामक छठा काल सबसे दुःखमय कहा गया है । इस आगामो काल में भयंकर आंधी और तूफानों का जोर होगा, सब जगह धूल ही धूल छा जायेगी, मेघों से विषाक्त जल को वर्षा होगो, तथा वैताव्य पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों को छोड़कर शेष सब वस्तुएँ नष्ट हो जायेंगी, और यह भूमण्डल आग से प्रज्वलित हो उठेगा । इस काल में लोग भाग कर पर्वतों को गफाओं में रहने के लिए चले जायेंगे; वे मछलियां और कछुए पकड़ेंगे तथा मनुष्य का मांस और मृत शरीर भक्षण कर अपनी क्षुधा शान्त करेंगे।
१. उदाहरण के लिए मगध सम्राट श्रेणिक बिम्बसार अपने अन्तिम समय तक बुद्ध भगवान् के प्रशंसक रहे (दीघनिकाय २, ५, पृ० १५२ ); अभय राजकुमार ने बौद्धधर्म स्वीकार किया ( मज्झिमनिकाय, अभयराजकुमारसुत्त ), तथा आनन्द ने कौशाम्बी के राजा उदयन और उसकी रानो को बौद्धधर्म का उपदेश सुनाया ( चुल्लवग्ग ११.८.१११, पृ० ४९३ )।
२. उदाहरण के लिए, जैन साधु थावच्चापुत्त और शुक परिव्राजक का सोगंधिया के नागरिकों ने समान भाव से स्वागत किया, ज्ञातृधर्मकथा ५, पृ० ७३ ।
३. देखिए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूत्र १८-४०।