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परिशिष्ट १ का ज्ञान प्राप्त किया था।' आचार्य कालक पारसकूल (ईरान) जाकर वहां के शाहों को अतने साथ भारतवर्ष लाये थे।
राजा सम्प्रति के अथक प्रयत्न से दक्षिणापथ (गंगा का दक्षिण और गोदावरी का उत्तरी भाग) में जैनधर्म का प्रसार हुआ था। दक्षिण भारत के प्रदेशों में आंध्र देश जैनों की प्रवृत्ति का केद्र था।' इसकी राजधानी धनकटक (बेजवाड़ा) थी। गोदावरी और कृष्णा नदी के बीच के प्रदेश को प्राचीन आंध्र माना गया है। दमिल अथवा द्रविड़ देश में जैन श्रमणों को वसति का मिलना दुलभ था, इसलिए उन्हें वृक्ष आदि के नोचे ठहरना पड़ता था। कांचीपुर (कांजीवरम् ) यहां की राजधानी थी। यहां का 'नेलक' सिक्का दूर-दूर तक चलता था । कांचो के दो नेलक कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के एक नेलक के बराबर गिने जाते थे । दिगम्बर आचार्य स्वामी समंतभद्र की यह जन्मभूमि थो।
तत्पश्चात् महाराष्ट्र और कुडुक्क (कुर्ग) का नाम आता है। कुडुक्क आचार्य का उल्लेख व्यवहारभाष्य में मिलता है, इससे पाता लगता है कि शनैः शनैः कुडुक ( कोडगू) जैन श्रमणों की प्रवृत्ति का केद्र बन गया था। महाराष्ट्र के अनेक रीति-रिवाजों का उल्लेख छेदसूत्रों , को टोकाओं में मिलता है । महाराष्ट्र में नग्न रहने वाले जैन श्रमण अपने लिंग में वेंटक (एक प्रकार को अंगूठी) पहनते थे। यहां के निवासी आटे में पानी मिलाकर उसे किसी दोपक में रखते और फिर उस दोपक को शीत जल में रख देते। प्रतिष्ठान या पोतनपुर (पैठन) महाराष्ट्र का प्रधान नगर था । बौद्ध ग्रंथों में पोतन या पोतलि को अश्मक देश को राजधानी बताया है। प्रतिष्ठान महाराष्ट्र का भूषण गिना जाता था।
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१. आवश्यकचूर्णी २, पृ० १८६ । २. निशीथचूर्णी १०.२८६०, पृ० ५९; व्यवहारभाष्य १०.५, पृ० ६४ । ३. बृहत्कल्पभाष्य १.३२८६ । ४. वही, ३.३७४९ । ५. वही, ३.३८९२ । ६. इसे हेहाणि ( निम्नभूमि ) कहा है, पिंडनियुक्ति ६१६ । ७. ४.२८३; १, पृ० २२१ -अ । ८. बृहत्कल्पभाष्य १.२६३७ । ९. निशीथचूी १७.५६७० ।