SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [परिशिष्ट १ - ११-सुराष्ट्र ( सौराष्ट्र = काठियावाड़ ) की गणना महाराष्ट्र, आन्ध्र, कुडुक्क (कुर्ग) के साथ की गयी है, जहाँ राजा सम्प्रति ने अपने भटों को भेजकर जैनधर्म का प्रचार किया था।' इससे पता लगता है कि धीरे-धीरे यहाँ जैनधर्म का प्रचार हुआ। कालकाचार्य यहां पारसकूल (ईरान) से ९६ शाहां को लेकर आये थे, इसलिए इस देश को ९६ मंडलों में विभक्त कर दिया गया था। सुराष्ट्र व्यापार का बड़ा केन्द्र था, और दूर-दूर के व्यापारी यहां माल खरीदने आते थे। द्वारका ( जूनागढ़ ) सौराष्ट्र की मुख्य नगरो थी। इसका दूसरा नाम कुशस्थली था। महाभारत में उल्लेख है कि जरासंध के भय से यादव लोग मथुरा छोड़कर द्वारका में आ बसे थे। इसे अंधकवृष्णि' और कृष्ण का निवास स्थान बताया गया है। द्वारका एक अत्यन्त सुन्दर और समृद्ध नगर था जो चारों ओर से पाषाण के प्राकार से परिवेष्टित था। वसुदेवहिण्डी में द्वारका को आनते, कुशाते, सौराष्ट्र और शुष्कराष्ट्र की राजधानी कहा है।' द्वीपायन ऋषि द्वारा इस नगरी के विनाश होने का उल्लेख ब्राह्मण और जैन ग्रंथों में मिलता है। यादवों का अत्यधिक मदिरापान इसके विनाश में कारण हुआ था। द्वारका व्यापार का बड़ा केन्द्र था जहाँ व्यापारी लोग तेयालगपट्टण ( वेरावल ) से नाव द्वारा आते-जाते थे। द्वारका के उत्तर-पूर्व में रैवतक पर्वत था, जो दशाह राजाओं को अत्यन्त प्रिय था। इसे ऊर्जयन्त भी कहते थे | रुद्रदाम और स्कंदगुप्त के गिरनार-शिलालेखों में इसका उल्लेख है। यहां एक नन्दनवन था जिसमें सुरप्रिय नामक यक्ष का मंदिर था । रैवतक ( उज्जयंत ) पर्वत १. बृहत्कल्पभाष्य १.३२८९ । २. वही १.६४३ । ३. दशवैकालिकचूर्णी, पृ० ४० । ४. महाभारत, सभापर्व १४.५३ । ५. अन्तःकृद्दशा १, पृ० ५। ६. ज्ञातृधमकथा ५, पृ०६८ । ७. देखिए ज्ञातृधर्मकथा ५, पृ० ६८; अन्तःकृद्दशा १, पृ० ४ आदि; निरयावलियाओ ५; बृहत्कल्पभाष्य १.११२३ । . ८. पृ० ७७ । ९. अन्तःकृद्दशा ५, पृ० २५ । १०. निशीथचूणी, पीठिका १८३, पृ० ६९ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy