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परिशिष्ट १ .
४७१ था। इसे इन्द्रपुर, गाधिपुर, महोदय और कुशस्थल' नामों से भी कहा गया है। कान्यकुब्ज ७वीं शताब्दी से लेकर १०वीं शताब्दी तक उत्तरभारत के साम्राज्य का केन्द्र था। चीनी यात्री हुएनसांग के समय सम्राट हर्षवर्धन यहाँ राज्य करता था। उस समय यह नगर शूरसेन के अन्तर्गत था।
जैनसूत्रों में अंतरंजिया का भी उल्लेख आता है। अंतरंजिया जैन श्रमणों को शाखा थी। आइने-अकबरी में इसे कन्नौज का परगना बताया गया है। अंतरंजिया की पहचान एटा जिले के काली नदी पर स्थित अंतरंजिया खेड़े से की जाती है। आजकल यहां पुरातत्त्व विभाग की ओर से खुदाई चल रही है।
१०-जांगल अथवा कुरुजांगल गंगा और उत्तर पांचाल के बीच का प्रदेश था।
अहिच्छत्रा ( रामनगर ) को जैनसूत्रों में जांगल अथवा कुरुजांगल की राजधानी कहा गया है। यह नगरी शंखवती, प्रत्यग्ररथ अथवा शिवपुर नाम से भी विख्यात थी। इसकी गणना अष्टापद, ऊर्जयन्त (गिरनार ), गजाग्रपदगिरि, धर्मचक्र ( तक्षशिला ) और रथावर्त नामक तीर्थों के साथ की गयी है । जैन मान्यता के अनुसार धरणेन्द्र ने यहां अपने फण ( अहिच्छत्र ) से पार्श्वनाथ को रक्षा की थी। चम्पा के साथ इसका व्यापार होता था ।' हुएनसांग के समय यहां नगर के बाहर नागहद था जहां बुद्ध भगवान ने नागराज को उपदेश दिया था। जिनप्रभसरि के समय यहाँ ईटों का किला. और मीठे पानी के सात कुण्ड थे जिनमें स्नान करने से स्त्रियां पुत्रवती होती थीं। नगरी के बाहर और भीतर अनेक कुएं, बावड़ी आदि बने थे जिनमें 'नहाने से कोढ़ आदि रोग शान्त हो जाते थे ।
१. अभिधानचिंतामणि ४.३९,४० । . २. स्थानांग ७.५८७; आवश्यकचूर्णी, पृ० ४२४ । ३. कल्पसूत्र ८, पृ० २३१ । ४. बी०सी० लाहा, ट्राइब्स इन ऐंशियेट इण्डिया, पृ० ३९३ । ५. विविधतीर्थकल्प, पृ० १४ । ६. अभिधानचिंतामणि ४.२६ । ७. कल्पसूत्रटीका ६, पृ० १६७ । ८. आचारांगनियक्ति ३३५ । ६. ज्ञातृधर्मकथा १५, पृ० १५८ ।