SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. परिशिष्ट १ . ४६५ शोभित थी । विशाल और गम्भीर खाई इसके चारों ओर खुदो हुई थी। चक्र, गदा, मुसुंढि, अवरोध, शतघ्नी और निश्छिद्र कपाटों के कारण शत्रु इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था। यहां वक्र प्राकार बने हुए थे । गोल कपिशीर्षक (कंगूरे), अटारी, चरिका (घर और प्राकार के बीच का माग), द्वार, गोपुर और तोरण आदि से यह रम्य थी। इस नगरी को अगला ( मूसल) और इन्द्रकील (ओट) चतुर शिल्पियों द्वारा निर्मित थे। यहां के बाजारों और हाटों में शिल्पियों को भीड़ लगी रहती थी। शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर बिक्री के योग्य वस्तुओं और दुकानों से शोभायमान थे। राजमाग राजा के गमनागमन से व्याप्त थे । एक से एक सुन्दर घोड़े, रथ, पालकी और गाड़ी आदि यहां की परम शोभा मानी जाती थी। यहां के तालाब कमलिनियों से शोभित थे । तात्पर्य यह कि चम्पा नगरी अत्यन्त प्रेक्षणीय, दर्शनीय और मनोहारिणी जान पड़ती थी। . चम्पा के उत्तर-पूर्व में पूर्णभद्र नाम का मनोहर चैत्य था जहां महावीर अपने शिष्य-समुदाय के साथ ठहरा करते थे। चम्पा बनिज-व्यापार का बड़ा केन्द्र था। वणिक लोग यहां दूर-दूर से माल खरोदने आते थे । यहाँ के व्यापारी अपना माल लेकर मिथिला, अहिच्छत्रा और पिहुंड (चिकाकोल और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश) आदि नगरों में व्यापार के लिए जाते थे। चम्पा और मिथिला में साठ योजन का अन्तर बताया गया है। चंपा के दक्षिण में लगभग १६ कोस को दूरी पर मंदारगिरि नाम का एक जैन तीथे है जो आजकल मंदार हिल के नाम से प्रसिद्ध है। __भागलपुर के पास वर्तमान नाथनगर को चम्पा माना गया है। ३-वंग ( पूर्वीय बंगाल ) की गणना सोलह जनपदों में की गयी है। अंग-वंग का उल्लेख महाभारत में आता है। प्राचीन काल में वर्तमान बंगाल भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता था। पूर्वीय बंगाल को समतट, पश्चिमी को लाढ, उत्तरी को पुण्ड, तथा असाम को कामरूप कहा जाता था | बंगाल को गौड़ भी कहते थ। ताम्रलिप्ति ( तामलुक) व्यापार का केन्द्र था और खासकर यह सुन्दर वस्त्र के लिए प्रख्यात था। यहां जल और स्थल 'दोनों मार्गों से माल आता-जाता था। कल्पसूत्र में तामलित्तिया नामक जैन श्रमणों १. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० ९७, ९, पृ० १२१; १५. पृ० १५९; उत्तराध्ययनसूत्र २१.२ । .....
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy