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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज परिशिष्ट १ महावोर जब साकेत (अयोध्या) के सुभूमिभाग उद्यान में विहार कर रहे थे, तो जैन श्रमणों को लक्ष्य करके उन्होंने निम्नलिखित सत्र प्रतिपादित किया-"निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनी साकेत के पूर्व में अंगमगध तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा (स्थानेश्वर) तक और उत्तर में कुणाला (श्रावस्ती जनपद) तक विहार कर सकते हैं। इतने ही क्षेत्र आर्यक्षेत्र हैं, इसके आगे नहीं। क्योंकि इतने ही क्षेत्रों में साधुओं के ज्ञान, दर्शन और चारित्र अक्षुण्ण रह सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि आरम्भ में जैन श्रमणों का गमनागमन आधुनिक बिहार तथा पूर्वीय और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कुछ भागों तक ही सीमित था।
आर्यक्षेत्रों की सीमा में वृद्धि परन्तु लगभग ३०० वर्ष पश्चात् , राजा संप्रति ( २२०-२११ ई० पू० ) के समय जैन श्रमण-संघ के इतिहास में अभूतपूर्व क्रान्ति हुई जिससे जैन भिक्षु बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश की सीमा को लांघ कर दूर-दूर तक विहार करने लगे। राजा सम्प्रति नेत्रहीन कुणाल का पुत्र, तथा कुणाल सम्राट चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र
और अशोक का पुत्र था। राजा सम्प्रति को उज्जैनी का अत्यन्त प्रभावशाली राजा बताया गया है। प्राचीन जैनसूत्रों में सम्प्रति को आर्यसुहस्ति और आर्यमहागिरि का समकालीन कहा है । संप्रति आयसुहस्ति के उपदेश से अत्यन्त प्रभावित हुआ, और इसके फलस्वरूप उसने नगर के चारों दरवाजों पर दानशालाएँ खुलवायीं और जैन श्रमणों को भोजन-वस्त्र देने की व्यवस्था की। संप्रति ने अपने आधीन आसपास के सामंत राजाओं को निमंत्रित कर श्रमण-संघ की भक्ति करने का आदेश दिया । वह अपने दण्ड, भट और भोजिक आदि को साथ लेकर रथयात्रा के महोत्सव में सम्मिलित होता, तथा रथ के आगे विविध पुष्प, फल, वस्त्र और कौड़ियां चढ़ाकर प्रसन्न होता । अवंतिपति सम्प्रति ने अपने भटों को शिक्षा देकर साधुवेष में सीमांत देशों में भेजा जिससे जैन श्रमणों को इन देशों में शुद्ध भोजन-पान को प्राप्ति हो सके। इस प्रकार उसने आन्ध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र और कुडुक्क (कुर्ग ) आदि अनार्य माने जाने वाले अपाय बहुल प्रत्यंत
१. बृहत्कल्पसूत्र १.५० ।