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परिशिष्ट १ पर्वत खड़ा हुआ है जिसके आगे मनुष्य नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को पहुँच अढ़ाई द्वोप-जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्कराध-तक हो है, इसके आगे नहीं। आठवां द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है । यह देवों को भूमि है जहां सुन्दर उद्यान बने हुए हैं। अन्तिम द्वीप का नाम स्वयंभूरमण है। संक्षेप में यही जैन पौराणिक भूगोल है।
वैज्ञानिक भूगोल किन्तु इतिहास से पता लगता है कि अन्य ज्ञान-विज्ञान को भांति भूगोल का भी क्रमशः विकास हुआ। जैसे-जैसे भारत के व्यापारी अन्य देशों में बनिज व्यापार के लिए गये, वैसे-वैसे उन देशों का ज्ञान हमें होता गया। धर्मोपदेश के लिए जनपद-विहार करनेवाले श्रमणों ने भो भूगोल-विषयक ज्ञान में वृद्धि की । बृहत्कत्पभाष्य (ईसवी सन् की लगभग चौथी शताब्दी) में उल्लेख है कि देश-देशान्तर में भ्रमण करने से साधुओं की दर्शनविशुद्धि होती है, तथा महान् आचार्य आदि की संगति प्राप्त कर अपने आपको धर्म में स्थिर रक्खा जा सकता है। धर्मोपदेश देने के लिए जैन श्रमणों को विविध देशों की भाषाओं का ज्ञान अवश्यक बताया है जिससे कि वे भिन्न-भिन्न देशों के लोगों को उनकी भाषा में उपदेश दे सकें। भाषा के अतिरिक्त, देश-देश के रीति-रिवाजों को जानना भी उनके लिए आवश्यक माना गया है।
जैन श्रमणों का विहार-क्षेत्र प्राचीन जैनसूत्रों से पता लगता है कि आर्य और अनार्य माने जाने वाले क्षेत्रों में जैन श्रमणों का विहार क्रम-क्रम से बढ़ा। महावीर का जन्म क्षत्रियकुंडग्राम अथवा कुंडपुर ( आधुनिक बसुकुंड) में हुआ था। इसी नगर के ज्ञातृखण्ड उद्यान में उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की, और तत्पश्चात् पावापुरी (अपापा अथवा मज्झिमपावा) में निर्वाण (५२७ ई० पू० ) प्राप्त किया। दूसरे शब्दों में, भगवान महावीर की प्रवृत्तियों का केन्द्र-स्थल अधिकतर अंग-मगध (बिहार) ही रहा।
१. आवश्यकचूर्णी, पृ० ३९७ आदि; उत्तराध्ययनटीका ९, पृ० १३८ ।
२. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १,४; अमूल्यचन्द्र सेन, 'सम कौस्मोलोजिकल आइ. डियाज़ ऑव द जैन्स', इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, १६३२, पृ० ४३-४८ ।
३. बृहत्कल्पभाष्य १.१२२६-३९ ।