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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ सिंहावलोकन आदि का काम करती थीं । अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण होते थे । कोई विद्यार्थी जब अपना अध्ययन समाप्त कर बाहर से लौटकर आता तो धूमधाम से उसका स्वागत किया जाता था । वेद, वेदांग, व्याकरण, न्याय, मीमांसा, छंद और ज्योतिष आदि को शिक्षा दो जाती थी । बहत्तर कलाओं का पाठ्यक्रम में विशिष्ट स्थान था । वेदों के अध्ययन की अपेक्षा आयुर्वेद को अधिक महत्त्व दिया जाता था । वैद्य लोग व्रण चिकित्सा में चोर-फाड़ से काम लेते थे । धनुर्वेद का ज्ञान विशेषकर राजपुत्रों के लिए आवश्यक था । संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला आदि कलाएँ उन्नति पर थीं। जादूटोना और झाड़-फूंक में लोगों का विश्वास था । विद्या और मंत्र की साधना की जाती थी । अनेक प्रकार के अंधविश्वास लोगों में प्रचलित थे । आमोद-प्रमोद के साधन मौजूद थे, तथा लोग अनेक प्रकार के पर्व, उत्सव आदि मनाकर मनोरंजन किया करते थे । मृतकों का क्रिया-कर्म ठाट से किया जाता था ।
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५ -- समाज में श्रमणों को अत्यन्त आदर को दृष्टि से देखा जाता था । ये लोग घूम-घूमकर जनता को अपने उपदेश से लाभान्वित करते थे । निर्वाणप्राप्ति के लिए संसार को छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण करना आवश्यक माना जाता था । निष्क्रमण-सत्कार बड़ी धूमधाम से मनाते थे । पक्को सड़कों आदि का अभाव होने से, तथा चोर डाकुओं आदि के उपद्रव होने से श्रमणों को संकटमय जीवन यापन करना पड़ता था । कितनी ही बार विरुद्धराज्य के समय उन्हें गुप्तचर समझकर पकड़ लिया जाता | दुर्भिक्षकाल में तथा किसी रोग आदि से पीड़ित होने पर उन्हें भयंकर कष्ट सहने पड़ते । लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इन्द्र, स्कन्द, यक्ष, भूत और आर्या आदि देवी-देवताओं की मनौती करते और बोली बोलते ।
६ - इतिहास से ज्ञात होता है कि भूगोल का विकास भी शनैःशनैः हुआ। जैसे-जैसे भारत के व्यापारी अन्य देशों में बनिज-व्यापार के लिए गये, वैसे-वैसे उन देशों का ज्ञान हमें होता गया । महावीर के समय जैनधर्म का प्रचार सीमित था, और उस समय जैन श्रमण साकेत के पूर्व में अंग-मगध, दक्षिण में कौशाम्बी, पश्चिम में स्थूणा, तथा उत्तर में कुणाला ( उत्तर कोसल) की सीमा का अतिक्रमण नहीं करते थे। दूसरे शब्दों में, जैन श्रमणों का विहार क्षेत्र आधुनिक बिहार, पूर्वीय उत्तरप्रदेश तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कुछ भाग तक ही