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________________ ४५४ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ सिंहावलोकन आदि का काम करती थीं । अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण होते थे । कोई विद्यार्थी जब अपना अध्ययन समाप्त कर बाहर से लौटकर आता तो धूमधाम से उसका स्वागत किया जाता था । वेद, वेदांग, व्याकरण, न्याय, मीमांसा, छंद और ज्योतिष आदि को शिक्षा दो जाती थी । बहत्तर कलाओं का पाठ्यक्रम में विशिष्ट स्थान था । वेदों के अध्ययन की अपेक्षा आयुर्वेद को अधिक महत्त्व दिया जाता था । वैद्य लोग व्रण चिकित्सा में चोर-फाड़ से काम लेते थे । धनुर्वेद का ज्ञान विशेषकर राजपुत्रों के लिए आवश्यक था । संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला आदि कलाएँ उन्नति पर थीं। जादूटोना और झाड़-फूंक में लोगों का विश्वास था । विद्या और मंत्र की साधना की जाती थी । अनेक प्रकार के अंधविश्वास लोगों में प्रचलित थे । आमोद-प्रमोद के साधन मौजूद थे, तथा लोग अनेक प्रकार के पर्व, उत्सव आदि मनाकर मनोरंजन किया करते थे । मृतकों का क्रिया-कर्म ठाट से किया जाता था । 1 ५ -- समाज में श्रमणों को अत्यन्त आदर को दृष्टि से देखा जाता था । ये लोग घूम-घूमकर जनता को अपने उपदेश से लाभान्वित करते थे । निर्वाणप्राप्ति के लिए संसार को छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण करना आवश्यक माना जाता था । निष्क्रमण-सत्कार बड़ी धूमधाम से मनाते थे । पक्को सड़कों आदि का अभाव होने से, तथा चोर डाकुओं आदि के उपद्रव होने से श्रमणों को संकटमय जीवन यापन करना पड़ता था । कितनी ही बार विरुद्धराज्य के समय उन्हें गुप्तचर समझकर पकड़ लिया जाता | दुर्भिक्षकाल में तथा किसी रोग आदि से पीड़ित होने पर उन्हें भयंकर कष्ट सहने पड़ते । लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इन्द्र, स्कन्द, यक्ष, भूत और आर्या आदि देवी-देवताओं की मनौती करते और बोली बोलते । ६ - इतिहास से ज्ञात होता है कि भूगोल का विकास भी शनैःशनैः हुआ। जैसे-जैसे भारत के व्यापारी अन्य देशों में बनिज-व्यापार के लिए गये, वैसे-वैसे उन देशों का ज्ञान हमें होता गया । महावीर के समय जैनधर्म का प्रचार सीमित था, और उस समय जैन श्रमण साकेत के पूर्व में अंग-मगध, दक्षिण में कौशाम्बी, पश्चिम में स्थूणा, तथा उत्तर में कुणाला ( उत्तर कोसल) की सीमा का अतिक्रमण नहीं करते थे। दूसरे शब्दों में, जैन श्रमणों का विहार क्षेत्र आधुनिक बिहार, पूर्वीय उत्तरप्रदेश तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कुछ भाग तक ही
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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