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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [सिंहावलोकन सांस्कृतिक और अर्ध-ऐतिहासिक सामग्री यहां सुरक्षित रह गयी है, वह भारत के अधूरे इतिहास को कड़ियाँ जोड़ने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं, इसमें सन्देह नहीं।
जैन आगमों की टीका-टिप्पणियों का समय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक है। स्पष्ट है कि आगम ग्रन्थों के काल को टीका ग्रन्थों के काल से मिश्रित नहीं किया जा सकता । लेकिन यह भी ध्यान रखने योग्य है कि बिना टोकाओं के आगमसूत्रों का स्पष्टीकरण नहीं होता। इस टीका-साहित्य में अनेक प्राचीन परम्पराएँ सुरक्षित हैं । अनेक स्थानों पर टीकाकारों ने प्राचीन सूत्रों की स्खलना आदि की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। मतलब यह है कि टोका-साहित्य में उल्लिखित सामग्री का उपयोग भी यहाँ किया गया है । आगम-साहित्य में उल्लिखित सामग्री की तुलना बौद्ध सूत्रों तथा तत्कालीन प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों से की जा सकती है, अतएव इस सामग्री को अप्रामाणिक अथवा कम प्रामाणिक मानने का कोई कारण नहीं।
२-उस समय सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था; इन राज्यों का मालिक कोई राजा होता, या यहां गणों का शासन चलता था। राजा बड़े निरंकुश होते थे । साधारण से अपराध के लिए वे कठोर से कठोर दण्ड देने में न चूकते। कितनी हो बार तो निरपराधी मारे जाते और दोषी छूट जाते थे। राज्य में षडयंत्र चला करते और राजा सदा शंकाशील बना रहता था। उत्तराधिकार का प्रश्न विकट था और राजा को अपने ही पुत्रों से सावधान रहना पड़ता था । अन्तःपुर तो एक प्रकार से षड्यंत्र के अड्डे समझे जाते थे। किसी के पास कोई सुन्दर वस्तु देखकर राजा उसे अपने अधिकार में ले लेना चाहता था,
और इसका परिणाम था युद्ध । युद्ध में साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का आश्रय लिया जाता था। चोरी, व्यभिचार और हत्याएँ होतो थीं, विशेषकर चोरों के उपद्रव सीमा को लांघ गये थे । जेलों को दशा अत्यन्त दयनीय थो। झूठी गवाही और झूठे दस्तावेज चलते थे। राजधानी राजा का निवास स्थान था, यद्यपि उन दिनों भी गांवों की संख्या ही अधिक थी। कर वसूल करने के लिए काफी सख्ती से काम लिया जाता था।
३-लोगों की आर्थिक स्थिति खराब नहीं कही जा सकती। देश धन-धान्य से समृद्ध था, और व्यापारी लोग बनिज-व्यापार के लिए