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________________ सिंहावलोकन १-जैनधर्म का इतिहास भगवान् महावीर से प्रारम्भ न होकर पार्श्वनाथ से आरम्भ हुआ माना जाता है। पार्श्वनाथ एक यशस्वी तीर्थंकर थे जो महावीर के २५० वर्ष पूर्व ईसवी सन् के पूर्व आठवीं शताब्दो में जन्मे थे। उन्होंने जैनधर्म को संगठित करने के लिए सवप्रथम चतुर्विध संघ की स्थापना की। जैनधर्म को शक्ति और सामर्थ्य जैनधर्म के अनुयायो श्रावक और श्राविकाओं के ऊपर अधिक आधारित रही है, जो बात प्रायः इस रूप में बौद्धधर्म में देखने में नहीं आती । जैनधर्म के उज्जीवित रहने का दूसरा कारण था उसके अनुयायियों का धर्मगत रूढ़ियों से संलग्न रहना। परिणाम यह हुआ कि बौद्धधर्म की भांति इस धर्म में तान्त्रिकों का प्रवेश न हो सका। इस धर्मपरायणता के कारण जैनधर्म के मौलिक तत्त्वों और सिद्धान्तों में शायद ही कोई विशेष परिवर्तन हुआ हो, और इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज से दो हजार वर्ष पहले जिस तत्परता के साथ जैनधर्म का पालन किया जाता था, वस्तुतः वह तत्परता आज भी कम नहीं हुई है। वैष्णवधर्म, शैवधर्म तथा अन्य मत-मतान्तरों के नये आचार-विचार लोगों में कोई विशेष आकर्षण पैदा न कर सके, और जैनधर्म अपने पुराने उत्साह को कायम रक्खे रहा । भारत में दूर-दूर फैले हुए प्रभावशाली जैनधर्म के अनुयायियों से इस कथन का समर्थन होता है। जिन जैन-आगमों को आधार मान कर यह सामग्री प्रस्तुत को गयो है, दुर्भाग्य से वे सब आगम किसी एक काल को रचना नहीं है। कुछ आगमों पर तो गुप्तकाल का प्रभाव स्पष्ट दिखायी पड़ता है। ऐसी हालत में इस पुस्तक का विवेचन काल-क्रमानुसार नहीं कहा जा सकता। फिर, ईसवी सन के पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर ईसवी सन् की पाँचवों शताब्दी तक के बीच आगमों को तोन वाचनाएँ हुई जिससे उनमें हानि-वृद्धि होती रही। दीर्घकाल के इस व्यवधान में निश्चय ही आगमों के विषय और भाषा आदि में काफी परिवर्तन हुआ होगा | ऐसो दशा में जैन-आगमग्रन्थों को बौद्धों के पालि त्रिपिटक जितना प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता । फिर भो जो सामाजिक,
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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